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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्युतस्य पच्चलिउसाव-सलोणी गोरडी नवखी कवि विस-गण्ठि । भड पच्चलिउ सो मरह जास् न लग्गइ कण्ठि ।। इतस एत्तहे-एतहे मेह पिअन्ति जलु ॥ ११०८. विषण्णोक्त-वमना वुन्न-वुत्त-विच्च । ४. ४२१॥ अपभ्रंशे विषण्णादीनां वुन्नादय आदेशा भवन्ति । विषण्णस्य चुन्नःमई वुत्तउ तुहुँ धुरु धरहि कसरहिं विगुत्ताई । पई विणु धवल न चडइ भरु एम्बइ बुन्नउ काई । उक्तस्य वुत्तः-मई वुत्त'. वत्मनो विच्च:-जं मणु विच्चि न माइ । ११०९. शीघ्रादीनां वहिल्लादयः । ४. ४२२ । अपभ्रंशे शीघादीनां वहिल्लादय आदेशा भवन्ति । एक्कु कइअ ह वि न आवही अन्नु पहिल्लउ जाहि । मई मित्तडा प्रमाणिअउ पई जेहउ खलु नाहिं ॥ झकटस्य घड्वल:जिव सुपुरिस तिवं घड्कलई जिव नइ तिव वलणाई ।' जिव डोगर ति कोहरई हिआ विसरहि काई ॥ अस्पृश्यसंसर्गस्य विद्याल:जे छड्डेविणु रयणनिहि अप्पऊ तडि घल्लन्ति । नई सङ्घहं विद्यालु परु फुक्किज्जन्त भमन्ति ।। भयस्य द्रवक्कःदिवेहि विद्वत्तउं खाहि वढ संचि म एक्कुवि द्रम्मु । कोवि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु॥ आत्मीयस्य अप्पण:- फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं. For Private and Personal Use Only
SR No.020569
Book TitlePrakrit Vyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirchand Prabhudas Pandit
PublisherJagjivan Uttamchand Lehruchand Shah
Publication Year1927
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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