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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकरण समुच्चयः एनिचन्द्र विरह विलाप: ॥४८॥ Ex34x34x34444444 M॥३५॥ समुहेण उच्चरंतो चरिमे समयम्मि अट्ठ नवकारे । भणह भणहत्तिजापर ते धन्ना जेहिं दिट्ठोऽसि ॥ ३६॥ सासो खासो दाहो सिन्निवि रोगा मुर्णिद! तुह खीणा । अणसणपावत्तिसमए समयं कलुसेहिं कम्मेहिं ।। ३७ ॥ चरमसमवि सुहगुरु! वियलत्तं परिहरंतएण तए । सव्वत्थ एगरूवा गुरुआ सच्चावियं वयण ॥ ३८ ॥ सचं सा कसिणधिय कत्तियमासस्स पंचमी कसिणा । खेत्ततरं व सूरो जीए तं सम्गमल्लीणो ॥३९॥४ एगारस अटुत्तर संवच्छरकाल! पडउ तुह कालो । जससेस जेण तए तं मुणिरयणं कयं पाव ॥४०॥ हा सिद्धतपियामह! हा! माए! ललियकव्क संपत्ति । हा! गणियविजसहिए हा! बंधव तकपरमत्थ ॥४१॥ हा छंदमुद्धपुत्चय हा! हाऽलंकारमझलंकारा । हा! कम्मपयडिपाहुडमाया! मह भेनिसामेह ॥ ४२ ॥ जो आसि मज जणओ मुणिचंदमुणीसरो विबुहपणओ । सो निग्घिणेण विहिणा सग्गंगणमंडणो विहिओ ॥ ४३ ।। | ते अमयजलहिउग्गारसनिहा कत्थ कोमलालावा । सुपसननयणअवलोयणाई ही ताई पुण कत्थ! ॥४४॥ इस तुझा विरहहुयवहजालावलि| कवालया रुयइ कलुगं । निस्संकं लीलाइयमणुसरइ सरस्सईदेवी ॥४५॥ हा ! चरणलच्छीवच्छे संपइ वेहव्वदुक्खमणुपत्ता । जइधम्मपुत्त! | मज्झवि संजाओ सामिणा विरहो ॥ ४६॥ ही जिणवयगपहावणकन्ने कन्नाण दुस्सहं रुयास । आनिययावहारचरिए! हुहुत्ति दूहवास रोयंति ॥ ४७ ॥ इय निययकुडुंबयमाणुसाई पत्तेयमुल्लविय दीणं । विलवइ चरित्तराओ ओ! विरहे तुज्झ मुणिनाह! ॥ ४८ ॥ को मज्झ संपर्य | साभिसाल! दाही सिराम्मि करकमलं?। अरुणपहाजाणियं सममयं व लच्छीनिवासगिहं ॥४९॥ कुवलयदलमालामणहराए अमयप्पवाहमहुराए । नेहभरमंथराए दिट्ठीऍ पसायभरियाए ॥५०॥ तह ताय! पलोएही संपइ को चरणतामरसपणयं । रोमंचंचियदेहं तुह विरहे माणुस लोयं ॥५१॥ अइदुग्गमगंधपबबसिहरोली मज्झ संपयं केणं । तुह वयणवज्जविरहे निदेयव्वा पयत्तणं ॥ ५२ ॥ अहवा-तुह नाम परममंतं अहोनिसं मज्झ झायमाणस्स | नाणचरणप्पहाणा उल्लसिही मंगलगुणाली ॥५३॥ जइ आसि मज्झ तुह पायपंकए सामि! अविरला भत्ती। 45 H४८॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020563
Book TitlePrakaran Samucchay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasinhsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1923
Total Pages133
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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