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प्रकरण
आत्मानुशासनं ४०
समुच्चयः
॥ ९९॥
सुवि दिसासु ॥ २५ ॥ दीणो सुसंतजीहो भमंतनयणो घुलंतसव्वंगो । विसयतिसातविओऽहं हरिणोव्व न निवडिओ कत्थ ॥ २६ ॥ दुहदावभावियंगो नहम्मि सुन्ने करे भमाडतो । कत्थवि रइमलहंतो तुह विरहे नाह! कह होहं?।।२७।। एयपि वियाणंतो ज न सहो रंजिउं खणंपि मणं । ता नाह! कालडको हीही पविसामि कत्थ अहं? ॥२८।। इय विन्नत्तिं सोउं जइ अप्पा आरुहई खणं रंगे । जह नवणीयं जलणे तह ता विलयइ फुडं कम्मं ॥ २९ ॥ इय तिहुयणभाल रयणसूरीहिं जिणिंद विन्नविज्जतं । निरुवमकल्लाणनिहिं कुणसु असेसंपि जियलोयं ॥३०॥
॥इति आत्मविज्ञप्तिः ।। अथ आत्मानुशासनकुलकम् ४०॥ सिरिधम्मसूरिसुगुरुं पुणो पुणो पणमिऊण भावेणं । तिहुयणसारं तत्तं अप्पहियं किंपि जंपेमि ॥ १॥ गीयं अमियं इह नहु मिटुं किंपि जीवलोगमि । पुरिसविसेसस्स मुहे जह मिट्ठा भारईदेवी ॥२॥ उवसमविवेयसंवरपयाण अत्थं न कोइ सुणइ किमु । सुव्वइ न | कोइ अवरो चिलाइपुत्तो जहा भयवं ।। ३ ॥ तरतमजोगा भेए रसो पयासेइ धाउविसयम्मि। ता जाव सहवेहे अओ परं नत्थि रससिद्धी
॥४॥ धाउध्व उवसमाई रसोव्व चित्तं इमाण संजोओ। ता जाव सिद्धी सिद्धी सो भन्नइ सहवेहविही ॥ ५॥ वक्खाणंति मुणीयो सुणंति तत्तं सिरपि धूर्णति । रोमंचं वहइ दढं भिज्जइ न मणो न तो किंपि ॥६॥ जो पुण विरत्तचित्तो भावणवंसग्गसंठिओ होउं । अप्पाणं | झूरंतो स इलापुत्तो धुवं होइ ॥ ७ ॥ मुतण लोयाचिंतं जइ जिय! झाएसि अप्पणो तत्तं । ता तुह जम्मो सहलो अहवा झूरेसि बहु पच्छा ॥ ८ ॥ भवचारयवेरग्गं विसयाइदुगुंछणं च इच्चाई । वयणच्चिय सल्वेसि हियए केसिंचि धन्नाणं ॥ ९॥ जे एवं जपंति पमायवेरि छलेह भो लोया ! । तोवे छलिज्जंति जया तया अहं तस्स किं काहं ? ॥१०॥ अन्नोऽन्नं जायंता मन्नंता अत्तणो य धन्नत्तं । संसारइंदयालं दरिसंता जे भणंति इमं ॥ ११॥ वेइ य न कोइ हियए वयणेहिं अणिच्चयं भणइ सम्बो । अन्नह मणबइकाए अन्नोऽन्नं कह विसंवाओ?॥१२॥
॥ ९९
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