SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० - - चपल वा अजतनाइं न चा कुलधर्म मर्याद नपरांत न नदन|| लीइं पंथे जोइ चालवू ट वेस धरीइं॥ चवलं न चंकमिऊ। विरऊ नेव ननमो वेसो॥ वांकी दृष्टीई न जोईइंस रीसाणा पण बोले शुं चामीया नर मदृष्टीथी जोवु । तेवा पुरुषने ॥३॥ वंकं न पलोश्ऊ। रुम वि नणंति किं पिसुणा ॥४॥ वश करीइं आपणी जीन वा विणा विचारधुं नहीज करीइं को रसना इंद्रीने। इ कार्य प्रते॥ निअमिऊश् नीअजीह। अविभारिअनेव किऊए कऊं न आपणो नलो जे कुला तो ते नर प्रते माठो कोपेलो शं करे चार तेने लोपीइं॥ पांचमोआरो वा कलीकाल ॥५॥ न कुलकमोश्रलुप्प। कुविन किं कुण कलिकालो॥५॥ कोइने मर्मवचन न बोलीजे कोइने पण कुमुकलंक न दीजीई दुखहेतु। कोइ काले। ___ मम्मं नन नविऊ। कस्सवि भालं नदिइ कया। कोइने पण न आक्रोस दु ए संत स्वजननो मारग एम दुर्ल रवचन बोलीइं॥ न जाणवो ॥६॥ __ कोवि न नक्कोसिऊ। सऊण मग्गो श्मो दुग्गो॥६॥ सर्वने वा सर्व प्रकारे नप न विसार्वो परजने नपगार करयो ते गार करवो। प्रते॥ सव्वस्स न्वयरि ऊर। न पम्हसिक परस्स व्वयारो॥ दुखीत दीनप्रते यथाशक्ती नपदेस हीतवचन एज जांण मा आधार दीजीइं। ह्या पुरुषोनो ॥७॥ विहलं अवलंबिऊ। ग्वएसो एस विन्साणं ॥७॥
SR No.020562
Book TitlePrakaran Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavchand Jechand Shah
PublisherRavchand Jechand Shah
Publication Year1888
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy