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१४४ गुणी गुणनी नाव सहीत जिनांणाए समान धर्मीनी तथा नक्ति न पांमे ॥ संघनी सेवाजक्ति साझ ॥ __ अणुनवजुत्ता नती। जिणाण साहम्मियाण वचनं ॥ न साधि सके अनव्यनो जी संसार दुःखनी खांण वे एहवो
नाव न थाय शुक्लपक्ष न थाय॥७॥ नय साहेश् अनव्वो। संविग्गत्तं न सुप्पकं ॥ ७ ॥ तीथकरना पीता माता स्त्री न तीर्थकरना जक्ष जक्षणी तथा थाय ॥
जुगप्रधान न थाय ॥ जिजणय जणणि जाया। जिजका जकणी जुगपहा आचार्यपदादि दसनो वीनय न परमार्थ नत्कृष्ट गुणे अधी[णा॥ करे आ०१०१ सा०१ संघ कपणु न पांमे ॥ ७ ॥ थिविर र कुलर गण? ए दसनो। ___ अायरियपया दसगं। परमब गुणढ़ मप्पत्तं ॥७॥ अनुबंधहिंसा हेतुहिंसा स्वरू तेज अहिंसा त्रण श्री तीर्थकरे क| पहिंसा।
ही ते। अणुबंध हे सरूवा। तब अहिंसा तिहा जिणुदिन॥ द्रव्यथकी नावथकी। एबे प्रकारे पिण ते अनव्य जीव न पांमे॥॥||
दव्वेणय नावणय। दुहावि तेसिं नसंपत्ता ॥५॥ इति अनव्यकुलक समाप्तं ॥
इति अनव्यकुलक समाप्तौ ॥
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अथ श्री पुण्यकुलक ५५ बोल ॥ संपुर्ण पांचे इंद्रि अखंमीत मनुषपणुश वली धर्मयोग कुल पणु।
आर्यदेश २५॥मां नपजवापणुः ॥
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