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________________ - २४२ ते प्रते। ते धर्म सिवसुखदायक बे॥१०३॥ | जिणधम्म कप्परुळं। सरसु तुमंजीव सिवसुहयं १०३ शुं घणु कहीई पुर्वे कझुंज घ यत्न वा नद्यम कर जेम नवरूप गुळे तीमज धर्मने विषे। समुद्र नयंकर ॥ किं बहुणा तह धम्मे। जश्अव्वं जह नवोदहिं घोरं॥ सीघ्रपणे पार पांमीने श्र सुख पामे जीव सास्वतु स्थानक इति लहु तरिय मणंत। सुहं लहश् जीन सासयंगणं १०४ ए रीते वैराग सतक टबार्थ पुरो थयो । इति वैराग सतक समाप्त॥ नंत। ॥१०॥ अथ अनव्यकुलक लिख्यते॥ जेम अजव्य जीवोइं। नथी फरशा नीचे वा ए श्रादीनाव ॥ जह अनविय जीवहिं। न फासिया एव माझ्या नावा॥ इंद्रपणु अनुत्तर सुर ते पांचे त्रेसठ सलाका नरनी पदवी नव वीमानना देवपणु न पांमे। नारदपणु न पांमे वली ॥१॥ इंदत्त मनुत्तरसुर। . सिलायनर नारयत्तं च ॥२॥ केवलीनगवंत तथा गणधर दीक्षा न पांमे तीर्थकर वरसीदान जीने हाथे। दे ते न पांमे॥ केवलि गणहर हजे। पव्वळा तिबवचरंदाणं॥ शासनना वा प्रवचनना अधी नवलोकांतीक देवपणु न पांमे टायक हेवा देवी देव न थाय। देवस्वामी न थाय ॥२॥ पवयण सुरी सुरतं। लोगंतिय देवसामित्तं ॥२॥ MA
SR No.020562
Book TitlePrakaran Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavchand Jechand Shah
PublisherRavchand Jechand Shah
Publication Year1888
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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