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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org (७७) लिपिपत्र ४३ वां. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस लिपिपतके ४ विभाग किये हैं, जिनमें से पहिले तीनमें तो लिपिपत ४१ और ४२ में, जो अंक लिखने बाक़ी रहगये, वे दर्ज किये हैं, और चौथे विभाग में गांधार लिपिके अंक भिन्न भिन्न लेखोंसे छांटकर रक्खे हैं, जो दाहिनी ओरसे बाई ओरको पढ़ेजाते हैं (गांधार लिपिके अंकों के लिये देखो पृष्ठ ५३-५४ ). लिपिपत ४४ वा. इस लिपिपत्र में वर्तमान कश्मीरी ( शारदा ) और पंजाबी ( गुरुमुखी) लिपियें दर्ज की है. कश्मीरी लिपिके बहुतसे अक्षर नागरी जैसे ही हैं, और थोड़े अक्षरों में फर्क है. 'घ, ङ, छ, ठ, ण, त, ध, फ, र, ल, ह' आदि अक्षर प्राचीन आकृतिसे अधिक मिलते हुए हैं. गुप्त लिपि में परिवर्तन होते होते यह लिपि बनी है. पंजाबी लिपिके बहुत से अक्षर देवनागरीसे मिलते हैं. गुरु अंगदके पहिले पंजाब में बहुधा महाजनी लिपिही व्यवहारमें प्रचलित थी, और संस्कृत पुस्तक नागरीसे मिलती हुई लिपिमें लिखे जाते थे. महाजनी लिपि अपूर्ण होनेसे उसमें लिखा हुआ शुद्ध नहीं पढ़ा जासक्का था, इसलिये गुरु अंगद ने अपने धर्म पुस्तक के लिये संस्कृत पुस्तकोंकी लिपिसे वर्तमान पंजाबी लिपि बनाई, इसलिये इसको गुरुमुखी कहते हैं. लिपिपत ४५ वा. इसमें वर्तमान ताकरी और महाजनी लिपि दर्जकी हैं. ताकरी लिपि पंजाब के पहाड़ी हिस्सोंमें प्रचलित है, जिसके 'घ, च, छ, ज, ञ, ढ, ण, त, ध, न, फ, र और ल' प्रायः प्राचीन शैलीसे मिलते हुए हैं, और बाकीके अक्षरों में से बहुत से देवनागरीसे मिलते हैं. महाजनी लिपि पश्चिमोत्तरदेश व पंजाब आदि में प्रचलित है. वहांके व्यापारी, जो शुद्ध लिखना नहीं जानते, अपना हिसाब, हुंडी, चिट्ठी आदि इसी लिपि में लिखते हैं. इसमें व्यंजनके साथ स्वरोंके चिन्ह नहीं लगाये जाते इसलिये इस लिपिमें लिखा हुआ शुद्ध नहीं पढ़ाजाता, किन्तु जिनको इसका अधिक अभ्यास होता है, वे अंदाजसे पढ़लेते हैं. यह लिपि नागरीसे बनी है, परन्तु शुद्ध लिखना न जानने वालोंके हाथ से ऐसी दशाको पहुंची है. For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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