SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (५० ) 4 अ ' लिखा है, जिसका कारण 'सु' को ' अ ' पढ़नाही है. इसी तरह २० का चिन्ह 'थ' है, जिसकी आकृति पुराणे पुस्तकोंमें 'घ' से मिलती हुई होनेसे लेखकोंने 'थ' को 'घ', फिर 'घ' को 'व', ', और 'व' को ' व ' लिखा है. इसी प्रकार ५ के चिन्ह 'तृ ' को ' हृ ' और ' ' भी लिखा है. ऐसेही दूसरे अंकोंके लिखनेमें भी गलती हुई है. पुस्तकों में अक्षरोंके साथ कभी कभी १ से ९ तक के लिये अंक, और खाली स्थानके लिये ० भी लिखते थे, और लेखोंकी नांई संख्या सूचक अक्षर और चिन्हों को एक पंक्ति में नहीं, परन्तु बहुधा एक दूसरे के नीचे लिखते थे, जैसे कि: १५ = २१ = ܨܢ थ स्व www. kobatirth.org , २२ = थ स्ति' ३३ = लुगु, १९ =डा, ४७ = अ, १५ = ग्र ८६= ६= कु, ९५=६, १०० = ठ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ = श्री, २७ = ' १६=७८= ड्रॉ सु सु सु १०२=०, १२७= प्व, १३१ = ला, २ ग्र १ स्ता , थ ग्री For Private And Personal Use Only सु सु सृ सु सू १४५ = म, १५० = 6, १९६ = ६३, १९८ = १३, २०९ = ०, ३१३= ० ६ हूा सू स्तो स्तो ३१४ =ल, ४६३ = घु, ४७६ = घू, आदि. पक , लेख और दानपत्रों में विक्रम संवत्की छठी शताब्दी तक तो प्राचीन क्रम बराबर चलता रहा, परन्तु उस समयके पहिले दीसे ज्योतिषके पुस्तकोंमें नवीन क्रमका प्रचार होगया था, जिसकी अत्यन्त सरलता के कारण सातवीं शताब्दीसे लेख आदि में भी उस क्रमका प्रवेश होने लगा. [चेदि] संवत् ३४६ (विक्रम संवत् ६५३ ) का गुर्जर राजा दद्द तीसरेका दानपत्र, जो प्रसिद्ध प्राचीन शोधक हरिलाल हर्षदराय भुवने प्रसिद्ध किया है ( १ ), उसमें पहिले पहिल प्राचीन अंकोंके स्थान पलटे हुए पाये गये हैं, अर्थात् एकाईके अंक ३ को ३०० के स्थानपर, और ४ को ४० के स्थानपर रक्खा है. इस तरह ७ वीं शताब्दीसे नवीन क्रमका प्रवेश होकर ९ वीं शताब्दी के समाप्त होते होते प्राचीन क्रम विस्कुल लुप्त होगया, और सर्वत्र नवीन क्रमसे अंक लिखे जाने लगे. यद्यपि बौद्ध और जैन पुस्तकों में (१) एपिग्राफिया इण्डिका ( जिल्द २, पृष्ठ १८ - २० ).
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy