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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्ष्मणसेनके मन्त्री हलायुधने अपने " ब्राह्मणसर्वस्व" नामक पुस्तक में लिखा है, कि " लक्ष्मणसेनने मेरी बाल्यावस्थामें मुझे राजपंडित, युवावस्थामें प्रधान, और वृद्धावस्थामें धर्माधिकारी बनाया" (१). हलायुधकी बाल्यावस्थासे वृद्धावस्था तक लक्ष्मणसेन राजा विद्यमान था,जिससे उसका राज्य ८ वर्ष नहीं, किन्तु अधिक वर्षों तक होना चाहिये. इससे स्पष्ट है, कि अबुलफज़ल भी लक्ष्मणसेनके इतिहाससे भलीभांति वाकिफ नहीं था. ऐसी दशामें जब तक अधिक तिथियें न मिलें, और उनको गणितसे जांचकर न देखाजावे, तब तक अबुलफज़लके लेखपर ही भरोसाकर शिवसिंहदेवका दानपत्र, जो अधुलफज़ल से बहुत पहिलेका है, जाली नहीं कहसक्ते. पंचांगोंके अनुसार इस संवत्का प्रारम्भ जो १०२६ से १०३१ के बीच आता है, सो भी उक्त दानपत्रसे करीब करीब आमिलता है. सिंह संवत्-यह संवत् सौराष्ट्रके मंडलेश्वर सिंहने अपने नामसे प्रचलित किया था. १- चौलुक्य राजा कुमारपालके समयके मांगरोलके एक लेखमें विक्रम संवत् १२०२ और सिंह संवत् ३२ आश्विन वदि १३ सोमवार लिखा है (२). इस लेखका विक्रम संवत् कार्तिकादि नहीं, किन्तु आषाढ़ादि है. इस लेखके अनुसार विक्रम संवत् और सिंह संवत्का अन्तर ( १२०२-३२ = ) ११७०, और सिंह संवत् १ आषाढ़ादि विक्रम संवत् ११७१ के मुताबिक होता है. २- चौलुक्य राजा भीमदेव दूसरेके दानपत्रमें विक्रम संवत् १२६६ और सिंह संवत् ९६ मार्गशिर शुदि (३) चतुर्दशी गुरुवार लिखा (१) बाल्ये ख्यापितराजपण्डितपद : श्वेतांशबिम्बोज्वलच्छास्त्रोसितमहामहस्तनुपदं दत्वा नवे यौवने । यस्मै यौवनशेषयोग्यमखिलझापालनारायण : श्रीमान् लक्षणसेन देवनृपतिर्धाधिकारं ददौ ॥ (ब्राह्मणसर्वस्व). (२) श्रीमहि क्रमसंवत् १२०२ तथा श्रीसिहसवत् ३२ आश्विनवदि १३. सोमे (भावमगरप्राचीनशोधसंग्रह भाग १, पृष्ठ ७) (३) “शुदि" या “ सुदि” और “ बदि " या "वदि" का अर्थ “शुकपच" और "रुषापच " माना जाता है, परन्तु वास्तवमें इनका पर्थ “ शकपक्षका दिन” और “कापक्षका दिन" है. ये खास शब्द नहीं है, किन्तु दो दो शब्दोंके संक्षिप्त रूप मात्र हैं. प्राचीन लेखों के देखने से प्रतीत होता है, कि पहिले बहुधा संवत्, ऋतु (पैम, वर्षा, और हेमन्त प्रत्येक चार चार माछ या ८ पक्षकी), मास या पक्ष, और दिन लिखनेका प्रचार था, परन्तु पौईसे सवत्, मास, पक्ष और दिन अर्थात् तिथि लिखने लगे.,जिनको कभी कभी पूरे शब्दों में, और कभी कभी संक्षेपसे भी लिखते थे, जैसे कि संवत्सरको " संवत् ", " " या For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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