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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवत्" कहलाने लगा (१). मुसल्मान ज्योतिषी अलबेरुनीने लिखा है, कि " वल्लभी संवत् शक संवत्से २४१ वर्ष पीछे शुरू हुआ है. शक संवत् से ६ का धन और ५ का वर्ग ( २१६+२५ % २४१ ) घटा देते हैं, तो शेष वल्लभी संवत् रहता है. गुप्त संवत्के लिये कहा जाता है, कि गुप्त लोग दुष्ट और पराक्रमी थे, और उनके नष्ट होने बाद भी लोग उनका संवत् लिखते रहे. गुप्त संवत् भी शक संवत्से २४१ वर्ष पीछे शुरू हुआ है. श्रीहर्ष संवत् १४८८, विक्रम संवत् १०८८, शक संवत् ९५३, और वल्लभी तथा गुप्त संवत् ७१२ ये सब परस्पर मुताबिक हैं" (२). इससे गुप्त संवत् और विक्रम संवत्का अन्तर (१०८८-७१२=) ३७६, और इसका पहिला वर्ष विक्रम संवत् ३७७, और शक संवत् २४२ के मुताबिक होता है. गुजरातके चौलुक्य राजा अर्जुनदेवके समयके वेरावल के एक लेखमें हिजरी सन् ६६२, विक्रम संवत् १३२०, वल्लभी संवत् ९४५, सिंह संवत् १५१ आषाढ़ कृष्णा १३ रविवार लिखा है (३). इस लेखके अनुसार वल्लभी संवत् और विक्रमी संवत्का अन्तर (१३२०-९४५%) ३७५ आता है, परन्तु यह लेख काठियावाड़का है, इसलिये इसमें विक्रमी संवत् कार्तिकादि होना चाहिये नकि चैतादि. इस लेखमें हिजरी सन् ६६२ लिखा है, जो विक्रम संवत् १३२० मृगशिर शुक्ला २ को प्रारम्भ हुआ, और वि० सं० १३२१ कार्तिक शुक्ला १ को समाप्त हुआ था. इसलिये हिजरी सन् ६६२ में, जो आषाढ़ मास आया वह चैत्रादि विक्रम संवत् १३२१ का, और कार्तिकादि १३२० का था. इसलिये चैत्रादि विक्रम संवत् और गुप्त या वल्लभी संवत्का अन्तर सर्वदा ३७६ वर्षका, और कार्तिकादि विक्रम संवत् और गुप्त या वल्लभी संवत्का अन्तर चैत्र शुक्ला १ से आश्विन कृष्णा अमावास्या ( अमान्त ) तक ३७५ वर्षका, और कार्तिक (१) वल्लभी के राजाओंने कोई नवीन संवत् नहौं चलाया, किन्तु गुप्त सवत्को ही लिखते रहे होंगे, क्योंकि इस वका स्थापन करने वाला सेनापति भटार्क था, जिसके तीसरे पुत्र अवसेन पहिलेके दानपत्र में [वसभी संवत् २०७ (इण्डियन एण्टिकरौ जिल्द ५, पृष्ठ २०४-७) होनसे स्पष्ट है, कि वसभी संवत् वल्लभीके राजाओंने नहीं चलाया, किन्तु पहिले से चला आता हुआ कोई संवत् है, (२) अलबरुनौज इण्डिया-मूल अरबी किताब (प्रकरण ४८, पृष्ठ २०५-६), (३) रसूलमहमदसवत् ६६२ तथा श्रीनृप[वि] क्रम में १३२० तथा श्रीमहलभौस १४५ तथा श्रीसि हस १५१ वर्ष आषाढ वदि १३ रवावद्य ह. ( इण्डियन एण्टिक्केरी जिल्द ११, पृष्ठ २४२). For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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