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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Noo Il. प्राचीन भारतीय अभिलेख 5. लगा कि भूतकाल में राजा यह चाहते थे कि कैसे लोग अनुरूप धर्मवृद्धि से बढें। परन्तु लोगों में यथोचित धर्मवृद्धि नहीं बढ़ी। तो लोगों को कैसे प्रवृत्त किया जाय? लोगों में कैसे अनुरूप धर्मवृद्धि बढ़े? किस प्रकार कुछ लोगों का 9. धर्मवृद्धि से अभ्युदय हो? अतः देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार 10. बोला-मुझे यह हुआ। धर्म-श्रावण सुनवाऊं और धर्मानुशस्ति का आदेश दूं। लोग इसे सुनकर तदनुसार आचरण करे और उन्नति करे। 12. और धर्मवृद्धि से खूब बढ़ेंगे। इस निमित्त धर्मश्रुतियां सुनवायीं और विधि धर्मानुशासनों की आज्ञाएं दिलवाईं। जिसमें मेरे बहुत से पुरुष (कर्मचारी) जो बहुत से लोगों पर नियुक्त हैं, वे कहेंगे और विस्तार करेंगे। लाखों लोगों पर नियुक्त राजुकों को भी यह आज्ञा दी गयी कि इसी प्रकार उपदेश करें। जो लोग धर्मलीन हैं। देवों का प्रियदर्शी राजा इस प्रकार बोला। यही देखकर मैंने धर्मस्तम्भ बनाये, धर्म-महामात्र किये और धर्मशासन किये। देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार बोला-मार्गों में मेरे द्वारा न्यग्रोध (वट वृक्ष) रोपे गये जो छाया के लिए उपयोगी होंगे। पशुओं और मनुष्यों के लिए। आम की वाटिकाएं रोपी गयीं। आठ-आठ कोस पर कुए 14. खोदे गये, विश्रामगृह बनवाये गये। मैंने जगह-जगह बहुत सी प्याऊएं करवायीं। पशुओं और मनुष्यों के उपयोग के लिए। परन्तु यह उपयोग की बात छोटी है। मैंने विभिन्न प्रकार के सुखों से लोगों को सुखी किया। लोग इस धर्माचरण का अनुसरण करें इसलिए मैंने 15. यह किया। देवों के प्रिय प्रियदर्शी ने ऐसा कहा कि वे धर्ममहामात्र भी मेरे बहुत प्रकार के प्रयोजनों में, उपकार के कार्यों में नियुक्त हैं, प्रवजितों में और गृहस्थों में और समस्त सम्प्रदायों में व्याप्त-लीन हैं। संघ में भी मैंने ऐसा किया। इस प्रकार ब्राह्मणों और आजीविकों में भी मैंने यह किया। 16. ये नियुक्त होंगे। निग्रन्थों में भी मैंने यही व्यापक (रूप से) जारी किया। विभिन्न सम्प्रदायों में भी मेरे ये ही (विचार) जारी रहेंगे। उनमें वे वे विशेष विशेष महामात्र हैं। मेरे धर्ममहामात्र इन सभी सम्प्रदायों में कार्यलीन हैं। देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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