SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 278 प्राचीन भारतीय अभिलेख 8. विन्ध्य की तलहटी पर अधिकार करते समय, सेना के मदमस्त गजों के द्वारा वहां के टूटते वृक्षसमूह की कर्कश आवाज के बहाने खग समूह दुःख से क्रन्दन करने लगे। 16 सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर जिसने कीर्तिस्तम्भ का अपूर्व युगल गाड़ दिया-अगस्त्य की दिशा (दक्षिण) में कृष्णराज तथा कुबेर की दिशा (उत्तर) में लक्ष्मीनिधि-भोजदेव। 17 तदनन्तर उससे मुग्धतुङ्ग उत्पन्न हुआ जिसके समान तीनों लोक में दूसरा नहीं था। जिसके दिविजय की इच्छा करने पर, शत्रु के अभाव में कोई दिशा ही न दिखाई दी। अर्थात् उसने हर देश जीत लिया। 18 जब वह युद्ध की तैयारी कर रहा था, तब उसकी तलवार आकर्षण का केन्द्र बन गयी थी। जो संग्राम लक्ष्मी की शय्या, शत्रु बल (सैन्य) का परिघ (अर्गला, रक्षा दण्ड), कोपलता का मनोरम पल्लव, गर्व का मित्र, सुचरित रूपी जल का इन्द्रनील (निर्मित) नहर, शौर्यतरु की शाखा तथा उसके साहसी कर्मों के विस्तार के लिये अक्षय पथ थी। 19 जो रुद्र का पराक्रम धारण कर प्रत्येक युद्ध में शत्रुसमूह को ऐसा कर डालता था मानो दौड़ता हुआ बेताल समूह, टूटे हुए अपने सिरों को लेकर दौड़ते कबन्ध, चिल्लाती हुई डाकिनी (अथवा डाकिनी के बच्चों) का कोलाहल, मुखगुहा से सामने निकलती उल्का (ज्वाला) तथा मांस के ग्रास की इच्छुक चिल्लाती हुई अशुभ सियार की भीषण आवाज से रौद्र वातावरण। प्रयाण करते हुए जिसके सैन्य के सागर को निकटवर्ती वनभूमि पर पड़ाव के समय वहां वधुओं की 10. कोमल अंगुलियों से चयन होने से तरु-पल्लव दुगुने हो गये। 21 मलय (पर्वत) के समीप ये विचार उदित हुए-यहां सागर की तरंगों ने विलास किया, यहां केरल की कामिनियों से खेलने वाला वायु बहता है, यहां तरुओं का सौरभ भुजङ्ग हर लेते हैं। 22 पूर्व सागर के तट-फैलाव को जीतकर उसने कोसलेश से पाली क्षेत्र ले लिया था। शत्रुओं के निवास को सतत नष्ट करते हुए वह खड्गपति (तलवार का धनी) अत्यंत प्रतापशाली हो गया था। 23 For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy