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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईशानवर्मा का हड़हा शिलालेख 161 3. सर्प की नागमणि की कांति से शोभित, सिंह का रक्तरञ्जित चर्म जिसका परिधान है, जिनकी शुभ्र वर्ण की कपाल माला जो (कामदहन के काल) नेत्रों से उत्पन्न अग्नि के सम्पर्क से पीत वर्ण की हो गयी है। चन्द्रमा की तमोहारिणी पतली लेखा अपने सिर पर धारण करते हुए अन्धक के शत्रु का सौ से शोभित शरीर आपको स्थिर पद (मुक्ति) प्रदान करे।2 वैवस्वत (यम) के आशीर्वाद से (सावित्री के पिता मद्र राजा) अश्वपति ने स्वयं के गुणों से सम्पन्न सौ पुत्र प्राप्त किये जिनसे शत्रुओं के विनाशक तथा कुप्रवृत्ति के रोधक राजा मुखर हुए। 3 उनमें से सर्वप्रथम राजा हरिवर्मा की विभूति, पृथ्वी की सम्पन्नता के लिये हो गयी। जिसने विजित शत्रु (से उपलब्ध) सम्पत्ति की कान्ति एवं अपने यश से सारे दिशाकाश को भर दिया; संग्राम में अनल की प्रभा से पीतवर्ण के मुख को देखकर भयभीत शत्रुओं के द्वारा जिसका नमन किया गया तथा (इसी कारण) जगत में उसका ज्वालामुख विरुद हो गया। 4 लोकस्थितियों (व्यवहारों) को दृढ़ करने के लिये स्थित जो आचार तथा विवेक पथ (निर्माण तथा निर्देश) में मनु के समान है, सारे लोक जिस यशस्वी (यशस्य) नाम की मनोरम कीर्ति गाते थे। 5 सागर से चन्द्रमा के समान उससे राजा आदित्यवर्मा हुआ। वर्ण तथा आश्रम की आचार प्रक्रिया के संचालन में जिसे प्राप्त कर विधाता सफल हो गया। 6 यज्ञ के मध्यवर्ती अनल से उत्पन्न अंधकार सा नीलवर्ण का, आकाश में पवन के कारण भ्रान्त एवं इधर-उधर घूमता चारों ओर उड़ा हुआ धूम जाल, जिसमें मयूर वायु तथा मेघ की आशंका कर लेते हैं, जिस राजा की हवन-आसक्ति व्यक्त करता है। 7 क्षत्रियों पर प्रभाव जमाने के लिये उसने यज्ञों में इन्द्र का आहावान करने वाले, स्वस्थचित्त (संयमी) राजा ईश्वरवर्मा को जन्म दिया। जिसने कलियुग के नैसर्गिक चरित को उखाड़ फेंका, जो ययाति के समान यशस्वी था तथा जिसके आचार-पथ का अनुसरण राजा लोग प्रयास 6. 7. For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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