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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५५ ) लिया है पर यह ग़लत है, स्वाद के मोह में वे यह नहीं जानते और न जानकर सहजही में विश्वास करते हैं कि चरपराहटवाले शाक पान से, स्वादिष्ट पक्वान्नों से, तथा कहने को लज्जतदार रसोई से शरीर में ताक़त-पोषण पहुँचने के स्थान आमाशय बिगड़ कर अनेक प्रकार के रोग पैदा होते हैं जो धीरे धीरे प्रवल रूप धारण कर शरीर को नष्ट कर देते हैं । ऐसे खान पान से कलेजा (लोवर) विगड़ कर सुस्त हो जाता है जिससे कुछ समय पश्चात् अन्न वराबर पाचन नहीं होता और बार २ अजीर्ण होता रहता है, कभी उल्टी होती है, कभी जी मचलाता है, कभी पेट फूल जाता है, कभी पेट में दर्द होता है, कभी सिर में पीड़ा होती है और कभी मुँह में छाले हो जाते हैं, इन के सिवाय उत्साहमन्द तथा दूसरे कई रोग पैदा हो जाते हैं पर जीभ को वश में न रख सकने के कारण ऐसे रोगों से भुगते हुये भी आजकल के स्वादिष्ट पदार्थों को देखते ही उसे खाने के लिये कोई ना कहने की हिम्मत नहीं रखते, भूख न होने पर भी, पेट भरा हुआ होने पर भी, भोजन किये को देर न हुई होने पर भी म्वाद से बहुत अधिक खा लिया जाता है कि जिसका अन्त में परिणाम सिवाय वोमारी पैदा होने के और कुछ नहीं हो सकता है। खाने के पहिले अपने पेट की अवस्था समझ लेनी चाहिये, पर स्वादिष्टता के आगे पेट ज़बरदस्ती ठूमा जाता है, उस समय पेट में उसके लिये जगह है वा नहीं इसका ख्याल नहीं किया जाता किन्तु जितना खाया जा सके उतना खा लिया जाता है । यहाँ तक की अजीर्ण हो रहा हो, खट्टी डकारें आती हो, छाती में जलन मालूम पड़ती हो, दस्त की कब्जियत हो, तो भी स्वादिष्ट पदार्थ को खाने के लिये इन्कार कैसे किया जावे ? पर लोगों को समझना चाहिये कि उल्टी, अपचन, अरुचि, सिर पीड़ा, खट्टी डकार आदि सब अजीर्ण के For Private And Personal Use Only
SR No.020550
Book TitlePathya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchand Tansukh Vyas
PublisherMithalal Vyas
Publication Year
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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