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एउ करइ त करइ इ इत्यादि हउ करउ लिउ दिउ इत्यादि तथा करावड़ लिवडावइ दिवरावइ यथा लभाडइ लभयति संपादयति उतारइ उत्तास्यति हउ कीजउ तीण कीजइ यथा देवदत्ति तइ मइ हुइ अइसुइ अइब इसइ यथा सेहि आवश्यकु पढिउ एउ सवेहि राजि जाणीइ तथा करतउ लेतउ देतउ इत्यादि तथा गुरि अणुजाणिउ चेलु व्याकरणु पढत
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उक्तिसंग्रह देवभद्रना शिष्य तिलक पंडिते बनावेलो छे. देवभद्र कीया गच्छना हता ते जणावलं नथी. आगभिक देवभद्र १३ मा शतकमां थएला हता.
वाचा कायेन मनसा श्रुत्वा वाचं विधीयते । बालार्थमुक्ति संस्कारः शास्त्रान्वेषणदर्पणः ॥ नमः श्रीदेवद्रेभ्यो गुरुभ्यश्च निरंतरं । येषां प्रसादमासाद्य बुधायते जडा अपि ॥ २ ॥ क्रियाकारकलिंगानि उक्तानुक्तं नरत्रयं ।
संख्या परस्मैकाद्याश्वात्मने सह विभक्तिभिः ॥ ३॥
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सर्वत्र इनंता क्रिया यथा उपाध्यायु मइ पढावइ । कचित् प्रथमाक्षरोप इन्भवति यथा देवदत्त मइ पाणिउ पावइ पापियउ साधु नारइ एवं आपइ वारइ सारइ दाहवइ ताप इत्या दनामपि । कउण कउणि वा इत्यपेक्षायां यत्र क्रियानिर्देशः स कर्ता उकारांतः कर्तृशब्दः यथा देवदत्तु करइ सोपि इकारान्तस्तदानुक्त यथा देवदत्ति पढीयई कसउ इत्यपेक्षायां कर्म कर्मणि द्वितीया कइसइ करिउ कइसइ हि कउणि करिउ करण छेहि इत्यपेक्षायां करणं करणे तृतीया.
अंत भारती भूषणमिदं समसंस्कृतप्रकृतं ।
नित्यं पठति ये तेषामस्तु स्वस्तिनिबन्धनं ॥ सरस्वत्याः पुरः स्थित्वा परित्यक्तान्यकर्मकः । स्मरेदहर्निशं यस्तु तस्यास्ति सर्वतोमुखी || यावद्धरा द्वरानितंत्रेषु क्रीडति विबुधा बुधाः । त्रिलोकी तिलकस्तावत्पठ्यनक्तिसंग्रहः ॥ इतिवृत्तित्रयसारोद्धारे
तिलकविरचितभाष्यं समाप्तं ॥
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