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पञ्चाशक- मूलम् .
॥ १८॥
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एयगया देसणा चेव ॥ २८९ ॥ दव्वत्थओवि एवं आणापरतंतभावलेसेण । समणुगउ च्चिय ओहिगारिणो सुपरिसुद्धोत्ति
७ जिन P॥ २९० ॥ लोगे सलाहणिज्जो विसेसजोगाउ उण्णइणिमित्तं । जो सासणस्स जायइ सो णेओ सुपरिसुद्धोत्ति ।। २९१ ॥ तत्थ पुण||
भवनवंदणाइंमि उचियसंवेगजोगओ णियमा । अस्थि खलु भावलेसो अणुहवसिद्धो विहिपराणं ॥ २९२ ॥ दव्वत्थयारिहत्तं सम्म णाऊण
लिपश्चाशकम् | भयवओ तंमि । तह य (उ) पयट्टताणं तब्भावाणुमइओ सो य (चेव)॥ २९३ ।। अलमत्थ पसंगणं उचियर्स अप्पणो मुणेऊणं । दोवि इमे कायब्वा भवविरहत्थं बुहजणेण ।। २९४ ॥ स्तवनविधिः समाप्तः ।
॥अथ सप्तमपञ्चाशकम् ॥ नमिऊण वह्नमाणं वोच्छं जिणभवणकारणावहाणं । संखेवओ महत्थं गुरुवएसाणुसारेणं ॥ २५.५ ।। अहिगारिणा इमं खलु कारेयव्वं विवज्जए दोसो । आणाभंगाउ च्चिय धम्मो आणाए पडिबरो ।। २९६ ।। आराहणाइ तीए पुण्णं पावं विराहणाए उ । एयं धम्मरहस्सं विण्णेयं बुद्विमतेहिं ।। २९७ ॥ अहिगारी उ गिहत्थो मुहसयणो वित्तसंजुओ कुलजो । अक्खुद्दो धिइबलिओ मइमं तह धम्मरागी अ ॥ २९८ ॥ गुरुपूयाकरणरई सुस्सूसाइगुणसंगओ चेव । णायाऽहिगयविहाणस्स धणियं माणप्पहाणो य ॥२९९॥ । युग्मम् ।। एसो गुणद्धिजोगा अणेगसत्ताण तीइ विणिओगा। गुणरयणवियरणेणं तं कारिंतो हियं कुणइ ।। ३०० ॥ तं तह पवन तमाणं दहूं केइ गुणरागिणो मग्गं । अण्णे उ तस्स बीयं सुहभावाउ पवज्जंति ।। ३०१ ॥ जो चिय सुहभावो खलु सव्वन्नुमयम्मि | AIR, | होइ परिसुद्धो । मो च्चिय जायइ बीयं बोहीए नेणणाएण ।। ३०२ ।। जिणभवणकारणविही सुद्धा भूमी दलं च कट्ठाई । भियगा
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