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आभुजन
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आभोग
सम्मापयोगमन्वाय आभुजतीति, दी. नि. अट्ठ. 1.163; धम्मारम्मणवसेन आभुजित्वा धम्मदानं दस्सामि, चरिया. अट्ठ. 279. आभुजन नपुं., आ + भुज से व्य., क्रि. ना., 1. मोड़ देने की क्रिया, मोड़, दबक, स. उ. प. के अन्त., पलङ्का. - नपुं., तत्पु. स., पालथी लगाकर बैठना – ने सप्त. वि., ए. व. - अज्जपेतन्ति अज्ज तव पल्लङ्काभुजनेपि एतं भयं न होतेवाति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 116, पे. व. अट्ठ. 191; 2. अनुचिन्तन, सोच-विचार, मनन, चित्त को आलम्बन की ओर मोड़ देना - तो प. वि., ए. व. तरसेव आभुजनतो
आभोगो, विभ. अट्ठ. 382. आभुजित त्रि., आ + भुज का भू. क. कृ., 1. मोड़ा हुआ, वक्र किया हुआ - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - वजिरासने निसिन्नकालतो पट्ठाय सकिम्पि अनट्ठहित्वा यथाआभूजितेन एकेनेव पल्लङ्कन, उदा. अट्ठ. 26; 2. मन द्वारा अनुचिन्तित, मन में लाया हुआ - तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - "परित्तानि अभिभुय्य तानि चे कदापि वण्णवसेन आभजितानि होन्ति ..., म. नि. टी. (म.प.) 2.122. आभूजी स्त्री., भोजपत्र नामक एक वृक्ष - भुजपत्तो तु
आभुजी, अभि. प. 565; भूजपत्ते इति ख्याते सुन्दरतचे रुक्खे, यस्सतचे मन्तक्खरानि लिखन्ति, अभि. प. सूची 39(रो.); - नो प्र. वि., ब. क. - मोचा कदली बहुकेत्थ सालियो, पवीहयो आभूजिनो च तण्डुला, जा. अट्ठ. 5.401; आभूजिनोति भुजपत्ता, जा. अट्ठ. 5.402; - परिवारित त्रि., ब. स., भोजपत्र के वृक्षों से घिरा हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - कदलीधजपाणो, आभुजीपरिवारितो, जा.
अट्ठ. 5.186. आभोग' पु., [आभोग], पूर्णता, पूर्ण आनन्द, पूर्ण भोग -
आभोगो पुण्णतावज्जे ..., अभि. प. 1083; - मत्त नपुं.. आभोगमात्र, केवल उपभोग, केवल आनन्द का अनुभव -
आभोगमत्तमेव हेत्थ पमाणं, कसा. 219. आभोग 1. पु., आ + भुज से व्यु., क्रि. ना. [आभोग], शा. अ., मुड़ाव, झुकाव, लपेट, घुमाव, घेरा, परिधि, कुण्डलन, ला. अ., मानसिक प्रवृत्ति, मन का लगाव, मनसिकार, मन में चढ़ा लेना, अभिरुचि, मानसिक अनुचिन्तन, मानसिक प्रत्यय, ध्यान - गो प्र. वि., ए. व. - यदेव तत्थ सुखमिति चेतसो आभोगो, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायति, दी. नि. 1.32; चेतसो आभोगोति झाना वढाय तस्मिं सुखे पुनप्पनं चित्तस्स आभोगो मनसिकारो समन्नाहारोति, दी. नि. अट्ठ.
1.104 - गं द्वि. वि., ए. व. -... एवं आभोगं कातुम्पि वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.226; अनापुच्छा वा आभोग वा अकत्वा अन्तोगब्भे वा असंवुतद्वारे बहि वा निपज्जन्तानं आपत्ति, पारा. अट्ठ. 1.226; 225; - गेन तृ. वि., ए. व. - पच्छिमस्स आभोगेन मुत्ति नत्थि, पाचि. अट्ठ. 39; - गे सप्त. वि., ए. व. - "किमिदं अन्धकार न्ति ? सत्तानं आभोगे उप्पन्ने, ..., स. नि. अट्ट, 1.195; 2. त्रि., आभोग करने वाला, मानसिक प्रत्यय बनाने वाला, मनन करने वाला, अनुचिन्तन का विषय बनाने वाला - स्स पु., प्र. वि., ए. व. - आभोगस्स होति... समन्नाहरन्तस्स होति ..., कथा. 287; ननु आवद्देन्तस्साति वारे आभोगस्साति
आभोगवतो, कथा. अट्ठ. 194; स. उ. प. के रूप में अत्था., अना०, अन्ता., चित्ता., पठमा., पुब्बा., सा. के अन्त. द्रष्ट.; - ता स्त्री॰, भाव., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त, चित्त के अनुचिन्तन की अवस्था, पठमा.- प्र. वि., ए. व., आलम्बन की ओर चित्त के जाने का प्रथम क्षण- पठमावज्जनञ्चेव पठमाभोगतापि च, अभि. अव. 1327; - पच्चवेक्खणरहित त्रि., मानसिक अनुचिन्तन एवं प्रत्यवेक्षण से रहित - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अञ्जमज आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा..., विभ. अट्ठ. 54; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स. [आभोगसंज्ञा], मानसिक चिन्तन के विषय में संज्ञा-ज्ञान - य तृ. वि., ए. व. - आभोगसआयपि झानस आयपि एवंसजी होति, दी. नि. अट्ठ. 2.136; तथारूपस्स आभोगरस असम्भवतो, समापत्तितो बुद्वितस्स आभोगो पुब्बभागभावनायवसेन झानक्खणे पवत्तं अभिभवनाकारं गहेत्वा पवत्तोति दहब्बं दी. नि. टी. 2.147(बर्मी); - समन्नाहार पु., तत्पु. स., आभोग नामक ध्यान-रे सप्त. वि., ए. व. - ... अट्ठविधे आभोगसमन्नाहारे .... लभति, अ. नि. अट्ठ. 2.102; सन्तं पणीतं सबसङ्घारसमथो
सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानन्ति एवं अट्ठविधे आभोगसञिते समन्नाहारे, अनि. टी. 2.92; - समन्नाहारमनसिकार पु., कर्म, स., आभोग में विद्यमान एकाग्रता -विषयक मनसिकार (मन का ध्यान)- रो प्र. वि., ए. व. - ओळारिकोळारिके कायसवारे परसम्भेमी ति आभोगसमन्नाहारमनसिकारो नत्थि, पटि. म. अट्ठ. 2.843; - गानुरूपं अ., क्रि. वि., मानसिक चिन्तन अथवा मनसिकार की अनुरूपता में - गोचरभावं गच्छन्तीति आभोगानरूपं अनेककलापगतानि आपाथं आगच्छन्ति, अभि. ध. स. 131; - गाभाव पु., तत्पु. स., मानसिक चिन्तन
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