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अज्झत्त
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अज्झपत्त
- विमोक्ख पु.. [अध्यात्मविमोक्ष), फलक्षणस्थ अर्हत्- पुद्गल द्वारा साक्षात्कृत विमुक्ति - खेन तृ. वि., ए. व. - अज्झत्तं विमोक्खाति अज्झत्तविमोक्खेन, अज्झत्तसङ्घारे परिग्गहेत्वा पत्तअरहत्तेनाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.56; - बुवान पु. (लिङ्गविपर्यय)- चार प्रकार के नीवरणों जैसे आन्तरिक धर्मों के अपनयन से प्राप्त होने वाले चार ध्यान - चत्तारि झानानि अज्झत्तं नीवरणादीहि वुढानतो अज्झत्तवुट्ठानो, पटि. म. अट्ठ. 2.139; - संयोजन 1. त्रि., अपने चित्त के अन्दर विद्यमान दस प्रकार के क्लेशों से युक्त - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - कतमो चासो, अज्झत्तसंयोजनो पुग्गलो, अ. नि. 1(1).80; पु. प. 128; 2. न', चित्त में विद्यमान दस संयोजनों में अन्तिम पांच संयोजन - पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि अज्झत्तसंयोजनं. विम. 418; - सन्ति स्त्री., आध्यात्मिक शान्ति, भीतरी रागों अर्थात् द्वेष, मोह, क्रोध, उपनाह तथा म्रक्ष आदि की शान्ति - अज्झत्तसन्तिं अज्झत्तं रागरस सन्तिं, दोसस्स सन्ति, मोहस्स सन्तिं, कोधस्स ... सन्ति, महानि. 135-136, - समुट्ठान त्रि., [अध्यात्मसमुत्थान]. भीतर से समुत्थित या उत्पन्न - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - इमस्स नेव अज्झत्तसमुठ्ठवाना हिरी अस्थि, न बहिद्धासमुहानं ओतप्पं जा. अट्ठ. 1.205, - सम्भव त्रि., भीतर में उत्पन्न, भीतर में उद्भूत-वो पु., प्र. वि., ए. व. - अज्झत्तसम्भवो कतञ्जताय ते, दुक्खे चिरं संसरितं तया कते, थेरगा. 1129, अज्झत्तसम्भवो अत्तनि सम्भूतो हुत्वापि तव अकतञ्जताय. थेरगा. अट्ठ. 2. 400; - सुञ नपुं., आन्तरिक रूप में धर्मों की स्वभावशून्यता - कतमं अज्झत्तसुझं? अज्झत्तं चक्खं सुझं अत्तेन वा अत्तनियेन वा निच्चेन वा ... इदं अज्झत्तसुझं पटि. म. 355-356; - त्तारम्मण त्रि., आध्यात्मिक धर्मों को आलम्बन बनाकर उत्पन्न होने वाले - णा पु., प्र. वि., ब. व. - कतमे धम्मा अज्झत्तारम्मणा? अज्झत्ते धम्मे आरब्भ ये उप्पज्जन्ति चित्तचेतसिका धम्मा-इमे धम्मा अज्झत्तारम्मणा, ध. स. 1053; चत्तारो खन्धा सिया अज्झत्तारम्मणा, सिया बहिद्धारम्मणा, विभ. 69. अज्झत्तिक त्रि., अज्झत्त से व्यु. [आध्यात्मिक]. अपने से सम्बद्ध, अपने से सम्बन्ध रखनेवाला-कं नपुं, प्र. वि., ए. व. - तत्थ चक्खादिपञ्चविध अत्तभावं अधिकिच्च पवत्तत्ता अज्झत्तिक, सेसं ततो बाहिरत्ता बाहिरं विसुद्धि. 2.77; - का पु., प्र. वि., ब. व. - बाहिरा हेसा रक्खा, नेसा रक्खा अज्झत्तिका, तस्मा तेसं अरक्खितो अत्ता, स. नि. 1(1).89%;
विविध तात्पर्यों में प्रयुक्त 1. अपने व्यक्तित्व अथवा शरीर से सम्बन्धित - अट्ठारस खो पनिमानि, भिक्खवे. तण्हाविचरितानि अज्झत्तिकस्स उपादाय, अ. नि. 1(2).241; विज्ञआणक्खन्धो अज्झत्तिको, विभ. 74; 2 अपरिहार्य अविभाज्य, अपृथक्करणीय - अज्झत्तिकं भिक्खवे, अङ्गन्ति करित्वा ..., स. नि. 3(1).122; इति. दु. 9; 3. अपने स्वयं के घर या बन्धुजनों से सम्बद्ध आत्मीय जन, आत्मीय परिग्रह - एवं, महाराज, यो सकं पोराणं अज्झत्तिकं जनं नीहरित्वा ... आगन्तुकंपियं करोति, जा. अट्ठ. 3.356, नियकोति अज्झत्तिको एकपितरा जातो, जा. अट्ठ. 6.274; - कम्मट्ठान नपुं.. [आध्यात्मिक कर्मस्थान]. ध्यान-प्रक्रिया में चित्त को स्थिर करने के लिए बतलाए गये 40 प्रकार के भीतरी आलम्बन - तथारूप वनसण्डं अनुपविसित्वा अज्झत्तिककम्मद्वानं सम्मसन्तो. ध. प, अट्ठ. 1.210; - दान नपुं., आध्यात्मिक दान, स्वकीय अङ्गों का दान - अहं अज्झत्तिकदानं दातुकामो, जा. अट्ट. 4.360, - बाहिर त्रि., भीतरी और बाहरी - रे नपुं., द्वि. वि., ब. क. - अज्झत्तिकबाहिरे आयतने अभिनन्दन्ति, मि. प. 72, - वत्थुक त्रि., आध्यात्मिक वस्तु वाला, ज्ञान की प्रक्रिया में इन्द्रियों को आधार बनाने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - अज्झत्तिकवत्थुका बाहिरारम्मणा, विभ. 348, - सङ्गह पु., [आध्यात्मिक संग्रह], आन्तरिक अथवा चित्त के कुशल धर्मों का संग्रह - हं द्वि. वि., ए. व. - ततो पट्ठाय च अज्झत्तिकसङ्गहमेव करोन्तो दानादीनि पुआनि कत्वा सग्गपरायणो अहोसि, जा. अट्ठ. 3.356; - सन्तति स्त्री., चित्त एवं चैत्तसिक जैसे भीतरी धर्मों का निरन्तर प्रवाह - या तृ. वि., ए. व. - वुच्चते, अज्झत्तिकसन्ततिया विसेसपच्चयत्ता, म.नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).217; - सुत्त नपुं.. स. नि. के एक सुत्त का नाम, स. नि. 2(1).165. अज्झपत्त त्रि., अधिपतति का भू. क. कृ. [अभ्यापतित].1. अकस्मात् झपट्टा मारनेवाला, अपने पास अचानक पहुंचा हुआ, उड़कर अचानक टूट पड़ने वाला, आक्रमण करने वाला - त्ता प्र. वि., ब. क. - उभो पक्खे सन्नयह लापं सकुणं सहसा अज्झप्पत्ता, स. नि. 3(1).225; - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - भुजङ्गमो कक्कटमज्झपत्तो, जा. अट्ठ. 3.259; महोदधिं हंसोरिव अज्झपत्तो, सु. नि. 1140; 2. सम्मूछित, बेहोश - तं स्त्री., वि. वि., ए. व. - तमज्झपत्तं राजपुत्तिं, उदकेनाभिसिञ्चथ, जा. अट्ठ. 7.343; तत्थ अज्झपत्तन्ति अत्तनो सन्तिकं पत्तं, पादमूले पतित्वा विसचिभूतन्ति अत्थो, तदे..
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