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अलङ्कार
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अलज्जी
अलङ्कारचुण्णं, म. वं. टी. 265; - जनितसोभारागी त्रि., पुथुलो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).96; - लोल त्रि., ब. स. [अलङ्कारजनितशोभारागिन्], अलङ्कारों से उत्पन्न शोभा के [अलङ्कारलोल], अलङ्कारों के प्रति लोभ या लालच रखने प्रति राग या लगाव रखने वाला - गिनो पु., ष. वि., ए. वाला/वाली - ला स्त्री., प्र. वि., ब. व. - अनागतस्मिव्हि व. - लोहिनकं लोहितमक्खितपटिक्कूलभावप्पकासनतो इथियो पुरिसलोला सुरालोला अलङ्कारलोला विसिखालोला अलङ्कारजनित-सोभारागिनो सप्पायं विसुद्धि. 1.185; - रञ्जन आमिसलोला भविस्सन्ति, जा. अट्ठ 1.323; - ता स्त्री., नपुं., कर्म. स. [अलङ्काराञ्जन], साज-सजावट या भाव., अलङ्कारों के प्रति लालच या लोभ - ताय त. वि., अलङ्करणहेतु प्रयुक्त अञ्जन - नं प्र. वि., ए. व. - ए. व. - पञ्चहि लोलताहि लोलो होति- आहारलोलताय अजनन्ति अलङ्कारञ्जनमेव, दी. नि. अट्ठ. 1.79; - त्थम्भ अलङ्कारलोलताय, परपुरिसलोलताय, धनलोलताय पु., कर्म. स. [अलङ्कारस्तम्भ], सजावट के लिये खड़ा पादलोलताय, सु. नि. अट्ठ. 1.30; - विभूसित त्रि., तत्पु. किया गया स्तम्भ या खम्भा - एसिकत्थम्भो इन्दखीलो स. [अलङ्कारविभूषित]. गहनों से सजा हुआ/सजी हुई - नगरसोभनो अलङ्कास्थम्भो, लीन. (दी. नि. टी.) 2.175; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा दिब्बवत्थनिवत्था दण्डक पु.. कर्म. स. [अलङ्कारदण्डक]. घूमने के समय दिब्बालङ्कारविभूसिता सब्बकामसमिद्धा देवच्छरापटिभागा प्रयुक्त मनोहर या सुन्दर छड़ी-कं वि. वि., ए. व. - अपरे अहोसि, पे. व. अट्ठ. 39; - रानुप्पदान नपुं.. तत्पु. स. चतुहत्थदण्डं वा अझं वा पन अलङ्कतदण्डकं गहेत्वा [अलङ्कारानुप्रदान], गहनों या सजावट-सामग्रियों का दान विचरन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.80; - दान नपुं, तत्पु. स. - नेन तृ. वि., ए. व. - सम्माननाय अनवमाननाय [अलङ्कारदान], अलङ्कारों का दान - नेन तृ. वि., ए. व. अनतिचरियाय इस्सरियवोस्सग्गेन, अलङ्कारानुप्पदानेन, दी. - अलङ्कारानुप्पदानेनाति अत्तनो विभवानुरूपेन अलङ्कारदानेन, नि. 3.144; - रूपविचार त्रि., ब. स., केवल अलङ्कारों या दी. नि. अट्ठ. 3.125; - पटिमण्डित त्रि., तत्पु. स. प्रसाधनसामग्रियों के बारे में सोचते रहने वाला/वाली[अलङ्कारप्रतिमण्डित], गहनों से सजा/सजी- मण्डिता रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - इत्थी खो, ब्राह्मण, पुरिसाधिप्पाया स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तावदेव नं सहजाता सविसहस्सा अलङ्कारूपविचारा पुत्ताधिद्वाना असपतीभिनिवेसा अमच्चा सब्बालङ्कारप्पटिमण्डिता परिवारयिंस. जा. अट्ठ. इस्सरियपरियोसानाति, अ. नि. 2(2).76; अलङ्कारत्थाय मनो 7.374; - परिभोगूपग त्रि., अलङ्कारों के उपभोग के लिये उपविचरति एतिस्साति अलङ्कारूपविचारा, अ.नि. अट्ठ. उपयोगी - पगं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - एवं इमेहि द्वीहि 3.122. पदेहि यं मनुस्सानं वोहारूपगं अलङ्कारपरिभोगूपगञ्च अलङ्घनीय त्रि., Vलङ्घ के सं. कृ. का निषे. [अलङ्घनीय], वह, जातरूपरजतमुत्तामणिवेळुरियपवाळलोहितमसास्गल्लादिकं जिसका उल्लंघन न किया जा सके, उल्लंघन न करने .... खु. पा. अट्ठ. 136; - पलिबोध पु.. तत्पु. स. योग्य - यं स्त्री., वि. वि., ए. व. - यो आचरेय्य [अलङ्कारपरिरोध], अलङ्करण के लिये रुकावट या बाधा - परदारमलङ्घनीयं तेल. 80. घो प्र. वि., ए. व. - अलङ्कारपलिबोधो मण्डनपलिबोधो अळजनपद पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के एक प्राचीन क्षेत्र का तेलमक्खनपलिबोधो धोवनपलिबोधो मालापलिबोधो, मि. प. नाम, जहां महाविहार की तीर्थयात्रा से वापस लौटते समय 10; - भण्डक नपुं.. तत्पु. स. [अलङ्कारभाण्डक], अलङ्करण इसिदत्त तथा महासोण नामक भिक्षु रुके थे- दं द्वि. वि., करने हेतु प्रयुक्त सामग्री या साजोसामान, सजावट की ए. व. - इसिदत्तत्थेरोपि अनुपब्बेन चारिकं चरन्तो अळजनपदं सामग्रियां - कं द्वि. वि., ए. व. - बोधिसत्तस्स तुस्सित्वा सम्पापुणि विभ. अट्ठ. 421. ब्राह्मणस्स सोळस गोणे अलङ्कारभण्डकं निवासगामञ्चस्स अलज्जी त्रि., लज्जी का निषे. [अलज्जिन]. लज्जा से ब्रह्मदेय्यं दत्वा महन्तेन यसेन ब्राह्मणं उय्योजेसीति,ध. प. रहित, बेशर्म - यदि तेन सद्धिं परिभोगं करोति, सोपि अट्ठ. 2.69; जा. अट्ठ. 2.138; - रथ पु., कर्म. स. अलज्जीयेव होति. पारा. अट्ठ. 2.248; अदूसकानं पुत्तानं, [अलङ्काररथ]. सजाया हुआ शाही रथ, अलङ्कत रथ - थो अलज्जी वत ब्राह्मणो, जा. अट्ठ. 7.323; - ज्जिनो पु.. प्र. प्र. वि., ए. व. - रथो च नामेसो दुविधो होति- योधरथो, वि., ब. व. - तेन खो पन समयेन असज्जिपुनब्बसुका नाम अलङ्कारस्थोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).96; स. नि. अट्ठ. कीटागिरिस्मिं आवासिका होन्ति अलग्जिनो पापभिक्खू पारा. 3.156; अलङ्कारस्थो महा होति, दीघतो दीघो, पुथुलतो । 281; -ज्जिपग्गह पु.. तत्पु. स. [अलज्जीप्रग्रह], निर्लज्ज
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