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अकुत्तिम अट्ठ. 5.374; - भय त्रि., ब. स. [अकुतोभय], वह, जिसे कहीं से भय न हो, सभी तरह से भयरहित - निब्बुते अकुतोभये, ध. प. 196; सब्बामित्ते वसीकत्वा, मोदामि । अकुतोभयो, सु. नि. 566; अकुतोभयोति कुतोचि अभयो, सु. नि. अट्ठ. 2.158; अकुतोभयाति तोचिपि असञ्जातभया पे. व. अट्ठ. 66. अकुत्तिम त्रि., द्रष्ट, अकित्तिम. अकुद्ध त्रि., द्रष्ट., अक्कुद्ध. अकुप्प त्रि., कुप्प का निषे. [अकोप्य, अकम्प्य], क्रोध-रहित, अचल, सुदृढ़, शान्त - अकुप्पा मे विमुत्ति, म. नि. 1.226; अकुप्पा मे विमुत्तीति, भवसंयोजनक्खया, इतिवु. 39; - द्वान नपुं., कर्म. स. [अकम्प्यस्थान], ध्रुवस्थान, अच्युत-स्थान, दृढ़ स्थिति - अकुप्पट्टानं धुवट्ठानं ध. प. अट्ठ. 2.186; - ता स्त्री., भाव. [अकोप्यता, अकम्प्यता], क्रोध-रहितता, दृढ़ता, शान्तता, चित्त की अडिग स्थिति अर्थात निर्वाण - सो पत्वा परमं सन्ति, सच्छिकत्वा अकुप्पतं, थेरगा. 434; - धम्म त्रि०, ब. स. [अकम्प्यधर्म], अचल एवं अडिग निर्वाण-धर्म से युक्त, क्षीणास्रव अर्हत् - पापभिक्खूति अपि अकुप्पधम्मोपि, अ. नि. 2(1).120; अकुप्पधम्मोपीति अपि अकुप्पधम्मो खीणासवो समानोपि परेहि पापभिक्खुहि उस्सद्धित-परिसङ्कितो होतीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.43; परि. 243. अकुब्बतो त्रि., कर के वर्त. कृ. का च. वि., ए. व. का। निषे., [अकुर्वतः], न करते हुए, अक्रियाशील - एवं सुभासिता वाचा, अफला होति अकुब्बतो. ध. प. 51; नाब्बणं विसमन्वेति, नत्थि पापं अकुब्बतो, ध, प. 124. अकुब्बमानो त्रि., Vकर के वर्त. कृ. का प्र. वि., ए. व.. [अकुर्वाणः], न करते हुए - यदत्तगरही तदकुब्बमानो, न लिप्पती दिवसुतेसुधीरो, सु. नि. 784. अकुल नपुं.. निषे., ब. स. [अकुल], भ्रष्ट कुल, बिगड़ा हुआ कुल - अकुलं काहति खिप्पमत्तनो, दी. नि. 3.140; - ता स्त्री., भाव., कुल के भ्रष्ट होने की अवस्था - कुला अकुलतं गता, जा. अट्ठ. 5.112; - पुत्त पु., तत्पु. स. [अकुलपुत्र], अशोभन परिवार या कुल का व्यक्ति या पुत्र, अच्छे कुल में उत्पन्न न होने वाला व्यक्ति -
दुक्कुलीनोति दुज्जातिको अकुलपुत्तो, जा. अट्ठ 2.187. अकुलीन त्रि., कुलीन का निषे०, तत्पु. स. [अकुलीन], नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति - तासं कुलधीतानं अकुलीनेहि सद्धिं संवासो, जा. अट्ठ. 1.323; एवं इत्थियो नाम ... कुलीनम्पि अकुलीनम्पि ... भजन्ति .... जा. अट्ठ. 5.362.
अकुसल अकुसल त्रि., कुसल का निषे., तत्पु. स. [अकुशल], शा. अ. अनिपुण, अचतुर, मूर्ख - एळमूगो तु वत्तुञ्च सोतुञ्चाकुसलो भवे, अभि. प. 734; बालो परो अक्कुसलोति चाहु, सु. नि. 885; बालो अव्यत्तो अकुसलो, स. नि. 3(1).227; ला. अ. क. लोभ, द्वेष एवं मोह, इन तीन अकुशल-मूलों में से किसी एक से भरा हुआ, पापमय, कलुषित - कुसलं, अकुसलं, अव्याकतं, चूळव. 199; अकुसलकम्मपथाति, ध. स. अट्ठ. 126; अकुसलरस कम्मरस बलवताय, मि. प. 112; अकुसलं भयभेरवं, म. नि. 1.22; ला. अ. ख. नपुं., पापकर्म, दुष्कर्म, अपुण्यकर्म - अकुसलं पजहति, कुसलं भावेति, मि. प. 34; तथागतो सब्बं अकुसलं झापेत्वा सब्बञ्जतं पत्तो, मि. प. 137; चतुबिध अकुसलं, खु. पा. अट्ठ. 115; - क. त्रि., [अकुशलक], अनाड़ी, अनुभवहीन - तेन अकुसलकेन चिता वङ्का भित्ति परिपति, चूळव. 288; - कम्म नपुं.. कर्म. स. [अकुशलकर्मन्], पापकर्म, बुरा कर्म, लोभ, द्वेष और मोह नामक तीन अकुशलमूलों से सम्प्रयुक्त चित्त द्वारा अभिसंस्कृत कर्म - अकुसलकम्मं अकासि, जा. अट्ठ. 6.216; अकुसलकम्म विनासनत्थेन, ध. प. अट्ठ. 2.202; - कम्मपथ पु., तत्पु. स. [अकुसलकर्मपथ], निम्नलिखित दस प्रकार के पापकर्म सुगत-परम्परा में अकुसलकर्मपथ में परिगणित हैं तथा ये कायिक, वाचिक तथा मानसिक द्वारों से प्रवर्तित होते हैं; 1. कायिक अकुसलकम्मपथ-प्राणातिपात, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, 2. वाचिक अकुसलकम्मपथ- असत्यभाषण, चुगली करनेवाली वाणी, कठोरवचन, निरर्थक वार्तालाप, 3. मानसिक अकुसलकम्मपथ-लोभ, द्वेष तथा मोह- दस अकुसलकम्मपथा, अ. नि. 3(2).234; एवमस्स दस अकुसलकम्मपथा पारिपूरि गच्छन्ति, ध, प. अट्ठ. 1.15; - कम्मपथकथा स्त्री., तत्पु. स. [अकुशलकर्मपथकथा], ध. स. अट्ठ के पांचवें परिच्छेद का शीर्षक, ध. स. अट्ठ. 148; - कारी त्रि., [अकुशलकारिन्], पापकों को करने वाला - कुसलकारिस्सपि अकुसलकारिस्सपि विपाको समसमो, मि. प. 191; - चित्त नपुं., कर्म स. [अकुशलचित्त], 1. लोभ, द्वेष, मोह से संप्रयुक्त बारह चित्तों को अकुशल-चित्त कहा गया है, इनमें आठ लोभ-संप्रयुक्त, चित, दो द्वेष-संप्रयुक्त चित्त तथा दो मोहमूलक चित्त परिगणित हैं - अट्ठधा लोभमूलानि, दोसमूलानि च द्विधा । मोहमूलानि च द्वेति द्वादसाकुसला सियु, अभि. ध. स. 2; 2. ध. स. के एक खण्ड का शीर्षक, ध. स. 402-430; 3. विभ. (पृ.) 186-190 का शीर्षक: -
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184.
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