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अपञ/अप्पञ
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अपण्णक 1(2).87; अपञ्जसाति मग्गतो अपगता, उम्मग्गगामिनो हुत्वा अपण्णक त्रि., व्यु. संदिग्ध [अपर्णक, पत्तों से रहित अपण्यक वायन्तीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.309.
(बहुमूल्य) या अप्रश्नक?], क. अविरुद्ध, पवित्र, सन्देहों से अपच/अप्पञ त्रि., ब. स. [अप्रज्ञ], प्रज्ञा से रहित, रहित, विवादमुक्त, सुस्पष्ट, सार्वभौम, परिपूर्ण, एकमात्र रूप मूर्ख, अज्ञानी, मन्द प्रज्ञा वाला - मन्दोति मन्दपओ में सुरक्षित - मेज्झं पूतं पवित्तो वा, अविरुद्धो अपण्णको, अपञस्सेवेतं नाम दी. नि. अठ्ठ. 1.100; बालं अच्चुपसेवतोति अभि. प. 698; एतम्पि दिस्वा पब्बजितोम्हि राज, अपण्णक बाल अप्पझं अतिसेवन्तस्स, जा. अट्ठ. 3.464; - क त्रि., सामञ्जमेव सेय्योति, म. नि. 2.271; अपण्णकं सामञ्जमेव अपञ से व्यु., ब. स. [अप्रज्ञक], प्रज्ञाविहीन, मन्द प्रज्ञा वाला, सेय्योति अविरुद्ध अद्वज्झगामि एकन्तनिय्यानिकं सामञ्जमेव मूर्ख - अम्बं पुट्ठा लबुजं वा ब्याकरिंसु अपञका, दी. वं. 6.30. सेय्यो उत्तरितरञ्च पणीततरञ्चाति .... म. नि. अट्ठ. अपायन नपुं., पञआयन का निषे. [अप्रज्ञापन], ज्ञात न (म.प.) 2.218; अपण्णकं ठानमेके, दुतियं आह तक्किका, कराया जाना, ज्ञान का विषय न बनाया जाना, सूचित न जा. अट्ठ. 1.111; तत्थ अपण्णकन्ति एकसिकं अविरुद्ध किया जाना - ..., तस्सा अपआयनतो संसारस्स निय्यानिकं, जा. अट्ठ. 1.111; कतमो च गहपतयो अपण्णको अनमतग्गता सिद्धा होतीति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).234. धम्मो? म. नि. 2.71; अपण्णकोति अविरद्धो अद्वेज्झगामी अपटु त्रि., पटु का निषे. [अपटु], वह, जो चतुर या निपुण एकसगाहिको, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.84; ख. पाशा के नहीं है, अचतुर - मन्दो भाग्यविहीने चाप्पके मूळहापटुस्वापि, विशे. के रूप में - सेय्यथापि, भिक्खवे, अपण्णको मणि अभि. प. 892.
उद्धं खित्तो येन येनेव पतिद्वाति सुप्पतिहितं येव पतिद्वाति, अपट्ठपेत्वा अ०, अप + Vठा का पू. का. कृ. [अपस्थाय], अ. नि. 1(1).304; अपण्णको मणीति छहि तलेहि समन्नागतो
शा. अ. दूर में या एक ओर रख कर, ला. अ. अपेक्षा न पासको, अ. नि. अट्ठ. 2.226; - टि. संभवतः मूलरूप में करके, उपेक्षा करके - अहं अञ अपट्टपेत्वा अत्तानओव अपण्णक पाशा की प्राचीन भारतीय क्रीड़ा से सम्बन्धित सोधेतुं लभामी ति पुच्छि, जा. अट्ठ. 4.274.
प्रतीत होता है, आगे चलकर यह मौलिक अर्थ पूरी तरह अपठवी/अपथवी स्त्री., पथवी/पठवी का निषे. [अपृथ्वी, विलुप्त हो गया प्रतीत होता है; - कं अ., क्रि. वि०, निश्चित पृथ्वी से भिन्न, भूमि से इतर - अहं इमं महापथविं अपथविं रूप से, बिना किसी सन्देह के - अपण्णक मे तनूपपत्ति करिस्सामी ति, म. नि. 1.179; अपथविं करेय्याति एवं कायेन भविस्सति, म. नि. 2.80; - कङ्ग नपुं, कर्म. स., अनुपम च वायाय च पयोगं कत्वापि सक्कुणेय्य अपथविं कातुन्ति, या बहुमूल्य अङ्ग-दानं देन्तस्स सीलं पूरेन्तस्स योगे कम्म म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).7; अपथविया पथविसी , ..., करोन्तस्स चत्तारि अपण्णकङ्गानेव लमन्ति, ध. स. अट्ठ. अपथविसी , पाचि. 51.
177; चत्तारि अपण्णकङ्गानि हापेत्वा पाळियं आगतानि अपण्डर त्रि., पण्डर का निषे०, तत्पु. स. [अपाण्डर], वह, द्वत्तिसमेव, ध. स. अट्ठ. 290; - गाह पु., तत्पु. स., अत्यन्त जो उज्जवल-धवल वर्ण का न हो, कृष्ण वर्ण वाला - सुरक्षित तत्त्व का ग्रहण, बहुमूल्य तत्त्व का चयन - अपण्डरो अण्डसम्भवो, सीवथिकाय निकेतचारिको, थेरगा. अपण्णकग्गाहं पन एकसिकग्गाहं अविरद्धग्गाहं गाहितमनुस्सा 599; अपण्डरो काळवण्णो, थेरगा. अट्ठ.2.183; अपण्डरा ... अहोसि, जा. अट्ठ. 1.107; - ग्गाहगाही त्रि., अत्यन्त लोहितन्ता, जिजूकफलसन्निभा, जा. अट्ठ. 5.150; अपण्डराति सुरक्षित अथवा अत्यधिक मूल्यवती धारणा या मान्यता को कण्हा , जा. अट्ट. 5.151.
ग्रहण करने वाला - अपण्णकग्गाहगाहिनो पन अमनुस्सानं अपण्डित त्रि., पण्डित का निषे. [अपण्डित], मूर्ख, अश्रुत, हत्थतो मुच्चित्वा सोत्थिना इच्छितट्टानं गन्त्वा .... जा. अट्ठ. अज्ञानी, स. प. के पू. प. में प्रयुक्त - जातिक त्रि., ब. स., 1.111; - जातक नपुं.. एक जातक का शीर्षक, जा. अट्ठ. अज्ञान-भरी प्रकृति वाला, मूढ प्रकृति वाला - तत्थ 1.104-133; सा पनेसा निदानकथा याव लट्ठिवने असभिरूपोति अपण्डितजातिको, जा. अट्ठ. 6.241; - पुरिस उरुवेलकस्सपसीहनादा अपण्णकजातके कथिता, जा. अट्ठ. पु., कर्म. स. [अपण्डितपुरुष], मूर्ख पुरुष, अज्ञानी पुरुष 4.252; अपण्णक जातकादीनि पञआसाधिकानि - बालो हि अपण्डितपुरिसो रज्जं वा ओपरज्जं वा अझं वा पञ्चजातकसतानि जातकन्ति वेदितब्, दी. नि. अट्ठ. 1.24; पन महन्तं ठानं पत्थेन्तो कतिपये अत्तना सदिसे विधवपुत्ते अपण्णकादीनि पुरा, जातकानि महेसिना, जा. अट्ठ. 1.2; - महाधुत्ते गहेत्वा .... अ. नि. अट्ठ. 2.72.
ट्ठान नपुं., वादविधि का सुरक्षित स्थल - सब्बम्पेतं
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