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अनुस्सित
अनुस्सित त्रि, उस्सित का निषे [ अनुच्छ्रित], शा. अ. वह, जो ऊपर की ओर बढ़ा हुआ या उठा हुआ नहीं है, ला. अ. वह, जो घमण्डी नहीं है या अभिमानी नहीं है - तं कथं कथये धीरो, अविरुद्धो अनुस्सितो, अ० नि० 1 (1).229. अनुस्सुक / अनुस्सुक्क त्रि., उस्सुक का निषे. [अनुत्सुक ], वह जो उत्सुकता से रहित है, इच्छा-रहित, सुरक्षित, अपेक्षारहित, आसक्ति-रहित खीणासवा अरहन्तो, ते लोकस्मिं अनुस्सुका ति स. नि. 1(1).18; यत्थ भुत्वा पिवित्वा च, सयेय्याथ अनुस्सुको 'ति, जा. अट्ठ. 2.194; सयेय्याथ अनुस्सुकोति येसु अलङ्कृतसिरिसयनपिट्टे अनुस्सुको हुत्वा सयेय्यासि, ते घरा नाम अतिविय सुखाति, जा. अट्ठ. 2.195; - ता स्त्री०, भाव. [अनुत्सुकता ], उत्सुकता का अभाव, इच्छाओं या आसक्तियों का अभाव, विगततृष्णता अनञ्ञपोसिनोति आमिससङ्गण्हनेन अञ्ञ सिस्सादिके पोसेतुं अनुस्सुक्कताय अनञ्ञपोसिनो, उदा. अट्ठ. 162. अनुस्सुत' त्रि, अनु + √सु का भू० क० कृ० [अनुश्रुत], परम्परा से सुना हुआ, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त सुरुचितंयेव होति... स्वानुस्सुतंयेव होति... म. नि. 2.389. अनुस्सुत' / अनुस्सद त्रि. संभवतः अनवस्सुत का रूपान्तरण, अवस्सुत का निषे [ अनवस्रुत], शा. अ. ऊपर छलक कर न बहने वाला, ला. अ. लोभ या राग के अकुशल धर्म से मुक्त, तृष्णा या आसक्ति से रहित - अक्कोट
नं वतवन्तं, सीलवन्तं अनुस्सद, ध. प. 400; सु. नि. 629; तण्हाउस्सदाभावेन अनुस्सद, ध. प. अट्ठ. 2.378. अनुसुतिक त्रि, अनुसुति से व्यु [आनुश्रुतिक ], परम्परा सुनी सुनाई बातों के आधार पर तार्किक निष्कर्ष निकालने वाला, चार प्रकार के तर्कविशारदों में से एक तत्थ चतुब्बिध तक्की अनुरसुतिको, जातिस्सरो, लाभी, सुद्धतक्किकोति, तत्थ ... सस्सतो अत्ताति तक्कयन्तो दिट्ठि गण्हाति, अयं अनुरसुतिको नाम, दी. नि. अट्ठ. 1.92. अनुस्सुय्यक त्रि. उस्सुय्यक का निषे, ईर्ष्यारहित, द्रष्ट. अनुसुय्यक के अन्त..
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अनुहायनं अ., क्रि० वि० [ अनुहायनं ], प्रत्येक वर्ष पर, हर साल, वार्षिक तौर पर महादानञ्च सद्धाय चीवरं चानुहायनं, चू. वं. 91.23.
अनूदक त्रि०, ब० स० [ अनुदक], जलरहित, द्रष्ट. अनुदक के अन्त..
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अनून त्रि, ऊन का निषे, तत्पु० स० [अनून] अन्यून, सम्पूर्ण, परिपूर्ण, भरा-पूरा, समूचा, अखण्ड अनवयोति
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अनून
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इमेसु लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनूनो परिपूरकारी, अवयो न होतीति वृत्तं होति, दी. नि. अट्ठ. 1. 201; परिपुण्णानीति अनूनानि, पे. व. अट्ठ. 248; नापदानं पञ्ञयतीति अलायितं हुत्वा अनूनमेव पञ्ञायति, दी. नि. अट्ठ. 3.47; - क त्रि अनून सेव्यु [ अनूनक], अनल्प, पूर्ण, सम्पूर्ण, अखण्ड, भरपूर अनूनकं दानवर, यो मे पादासि माणवो, अप. 1.337; हत्थस्सरथयोधेहि पत्तीहि च अनूनको, म. वं. 5.81; ददामहं कुमारस्स, वीसकोटी अनूनका, अप. 1.327; - नंग त्रि., ब० स० [ अन्यूनाङ्ग ], शरीर की विकलाङ्गता से रहित, अविकलाङ्ग शरीर वाला, सम्पूर्ण अङ्गों वाला अचलो होमि मेत्ताय, अनूनङ्गो भवामहं, अप. 1.355; अभिरूपो सुचि होमि, सम्पुण्णङ्गो अनूनको, अप. 2.104; -- ता भाव, अनून से व्यु. [ अनूनता], परिपूर्णता, अखण्डता, अविकलता, भरापूरापन, अङ्गों की स्वस्थता - अनूनतं मे पस्सित्वा, काळकण्णी 'ति निन्दिसुं चरिया 399; अनूनतन्ति हत्थादीहि अविकलतं, चरिया. अट्ठ. 201; - त्त नपुं., अनून से व्यु० [अनूनत्त्व]. उपरिवत् सो तेसं धम्मानं अनूनत्ता परिपुण्णत्ता सम्पन्नत्ता ओक्कमति, मि. प. 161; नाम पु०, व्य. सं., परिपूर्ण नाम वाला, पुण्णक का श्लेषपरक उपनाम अनूननामो लभतज्ज दारं, अज्जेव तं कुरुयो पापयातूति, जा. अट्ठ. 7.220; अनूननामोति सम्पुण्णनामो पुण्णको यक्खसेनापति, जा. अट्ठ. 7.220; कच्चायनो माणवकोस्मि, राज, अनूननामो इति मव्हयन्ति, जा. अट्ठ. 7.165; तत्थ अनूननामोति न ऊननामो, तदे. - भोग त्रि, भरपूर विषयभोगों का आनन्द लेने वाला अनूनभोगो हुत्वान, देवरज्जं करिस्सति, अप. 1.37; 396 - मनसंकप्प त्रि०, ब० स० [अनूनमनसङ्कल्प], वह, जिसके मन के सङ्कल्प परिपूर्ण हों अनूनमनसङ्कप्पो, तिक्खपञ्ञ भविस्सति, अप. 2.60; - सत नपु., कर्म. स. [अनूनशत], पूरे एक सौ - सोचयन्तो
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थिरसारदण्डं अनूनसतसलाकालङ्कतं उस्सापेति पण्डरविमलसेतच्छत्तं,... मि. प. 213; - नाधिक त्रि. द्व० स० [ अनूनाधिक ], न कम, न अधिक उपयुक्त मात्रा अथवा संख्या वाला अनूनाधिकतोति कस्मा पन भगवता पञ्चेव खन्धात्ता अनूना अनधिकाति, विसुद्धि 2.106; विचक्खणताय अनूनाधिकं अविपरीतञ्च गहेत्वा वित्थारिकं करोति, सु. नि. अट्ठ. 1.199; अनुनाधिके दस मासे गब्भवासं वसन्तो पि उप्पज्जमानो नाम, अ. नि. अट्ठ. 1.81; अनूनाधिकतो चेव, विञ्ञातब्बो विभाविना. म. नि. अ. (मू.प.) 1(1).89; नाधिकवचन नपुं०, कर्म. स.
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