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६२ : पद्मावती
इसके निर्माण का स्थल है सिंध और पार्वती नदी का संगम । एक अनुश्रुति के अनुसार इस किले को राजा पुन्नपाल के द्वारा बनाया हुआ बताया गया है । यह परमार वंश का राजा था। किन्तु यह दुर्ग जिस रूप में आज दिखाई दे रहा है उसे उस रूप में नरवर के कछवाहा राजा ने बनवाया था। यह कछवाहा राजा स्वतंत्र शासक नहीं था, अपितु दिल्ली शासन का करदाता राजा था। इस किले में कहीं-कहीं पर ऐसी ईंटों का उपयोग किया गया है जो किसी अन्य स्थान से खोदी गयी प्रतीत होती हैं। इनकी चिनाई चूने से हुई है। प्राचीनता का केवल इतना ही ऋण इस किले पर है कि इसमें कुछ सामग्री पुरानी अवश्य है । यह ध्वस्त दुर्ग लगभग चालीस एकड़ क्षेत्रफल घेरे हुए है । इसके उत्तर-पश्चिम कोने पर एक प्रवेश द्वार है तथा एक छोटा-सा दरवाजा दक्षिण-पूर्वी कोने पर भी है। यहीं से तनिक पीछे की ओर चल कर पत्थर का घाट दृष्टिगोचर होता है । अब तो किले का अधिकांश भाग जंगल में परिवर्तित हो चुका है और खण्डहर मात्र ही शेष रह गये हैं। उसका प्रासाद खण्ड तो पूर्ण रूप से नष्ट ही हो चुका है । जो कुछ भाग रहा भी है वह भी धीरे-धीरे नष्ट होता जा रहा है क्योंकि उसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं किया जा रहा है। ५.३ धूमेश्वर महादेव का मन्दिर
___ स्मारकों के इस प्रसंग में धूमेश्वर महादेव के मन्दिर का उल्लेख भी समीचीन प्रतीत होता है । यह स्मारक पवाया से लगभग दो मील उत्तर-पश्चिम में है। इसे धूमेश्वर महादेव के मन्दिर के नाम से जाना जाता है । सिंध नदी में जो जल-प्रपात है जिसका उल्लेख भवभूति ने अपने नाटक 'मालती-माधव' में किया है, यह मन्दिर उस जल-प्रपात के अत्यन्त निकट ही है । पत्थर, ईंट, गारे और चूने में बनी हुई यह इमारत देखने में बड़ी भव्य प्रतीत होती है । आज यह एकांत में है, और इसके दर्शन करने वालों की संख्या अत्यन्त सीमित हो गयी है, किन्तु किसी समय इसके दर्शकों की संख्या विशाल रही होगी। यह मन्दिर स्थिति की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है । पत्थर के एक ऊँचे चबूतरे पर बने हुए इस मन्दिर की एक अन्य विशेषता यह है कि इसके तीनों ओर सीढ़ियाँ हैं। जिनका आशय यही रहा होगा कि दर्शक किसी भी ओर से जा कर भगवान के दर्शन कर सकें । ये सीढ़ियां बड़ी साफ-सुथरी और अच्छी बनायो गयी थों । इस मन्दिर का मुख पूर्व की ओर है, जिससे प्रस्फुटित होते ही सूर्य भगवान की किरणें अन्दर तक प्रवेश कर सकें । मन्दिर में पुण्यागार, अन्तराल, सभामण्डप और द्वारमण्डप सभी की व्यवस्था की गयी है । सभामण्डप दो खण्डों में विभाजित हो गया है, एक मुख्य बैठने का स्थान एवं दूसरे खण्ड के दो पार्श्व हो गये हैं । यह दो मंजिली इमारत है जिसमें ऊपर गुम्बद है। कोष्ठ-छत्र को भली प्रकार सजाया गया है तथा ड्योढ़ी बंगाल शैली की छतवाली है। यह मन्दिर लगभग तीन शताब्दी पूर्व का होना चाहिए। कहा जाता है कि इसे ओड़छा के बुन्देला राजप्रमुख वीरसिंह देव ने बनवाया था। वीरसिंह देव ने जहाँगीर के शासनकाल में राज्य किया है । सिंध नदी के जल-प्रपात से ऊपर चल कर एक अन्य स्मारक है जिसका नाम नौचंकी बताया जाता है। कहा जाता है कि यह इमारत दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान के समय की है । किन्तु इसके रचना कौशल से तो ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्मारक के
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