SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्मावती के ध्वंसावशेष : ५३ शिव मन्दिर के द्वार का प्रस्तर-श्रवण की कावड़-गंगा प्रारम्भ में शिव मन्दिरों में ही मिलती है, किन्तु आगे चल कर एक अनोखा ही विकास हो गया और पौराणिक गंगा और यमुना बन कर ये शिव मन्दिर के द्वार की पवित्रता की रक्षिकाएँ बन गयीं। किन्तु गंगा और यमुना के पृथक-पृथक वाहनों के दर्शन सर्वप्रथम हमें उदयगिरि की वराह मूर्ति के दोनों ओर होते हैं-गंगा-मकर वाहिनी और यमुना-कूर्मवाहिनी। यहीं से सम्भवतः ये दो देवियाँ बनी होंगी । भारशिवों ने भगवान शिव की नदी माता गंगा की पवित्रता फिर से स्थापित कर दी थी और उसके स्वरूप को इतना निखार दिया था कि आगे चल कर गुप्तों और वाकाटकों ने भी उसे पवित्र और पापहारिणी समझ लिया था । वे अपने मन्दिर के द्वारों पर उसे स्थापित करने में गौरव का अनुभव करते थे। यह एक पवित्रता का चिह्न समझी जाती थी। गंगा की इस प्रकार की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। डॉ० जायसवाल ने गंगा की प्राचीनतम मूर्ति जो पत्थर की बनी है, जानखट नामक स्थान में होने का उल्लेख किया है । इसके बाद की मूर्ति जो यमुना की मूर्ति के साथ है भूमरा में बतायी गयी है। उसके बाद की मूर्तियाँ देवगढ़ में मिलती हैं । इनका विवरण श्री कनिंघम ने 'पुरातत्वीय सर्वेक्षण रिपोर्ट खण्ड 10' पृष्ठ 104 में पाँचवें मन्दिर के अन्तर्गत किया है । बताया गया है कि इन मूर्तियों के सिर पर पाँच फन वाले नाग की छाया है। इन मूर्तियों की स्थिति पाखों के नीचे वाले भाग में है। इनकी तुलना समुद्रगुप्त के ऐरन वाले विष्णु मन्दिर में प्राप्त मूर्तियों के साथ की जा सकती है। डॉ० जायसवाल ने देवगढ़ के नागछत्र को सर्वश्रेष्ठ बतलाया है, उनकी यह मान्यता है कि उस प्रकार का नागछत्र अन्यत्र उपलब्ध नहीं। अब प्रश्न इस बात का है कि गंगा और यमुना के साथ नागछत्र का क्या सम्बन्ध है ? पुराणों में इसके विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता । नदी सम्बन्धी भावना सम्भवतः भारशिवों के समय में उदित हुई होगी। इसी प्रकार की एक मूर्ति प्रवरसेन के सिक्के में भी मिलती है, जिसके विषय में पहले कहा जा चुका है कि यह गंगा की होनी चाहिए । इस प्रसंग से यह बात माननी होगी कि नागों को नदियों से विशेष लगाव था। ताड़ नागकालीन मूर्तिकला की एक अन्य देन है-ताड़ वृक्ष । नागों के द्वारा ताड़ वृक्ष के उपयोग का विवरण तो अन्यत्र भी मिल जाता है। महाभारत में नागों को तालध्वज कहा गया है । ताड़ का यह राज-चिह्न भी कई मुद्राओं पर पाया जाता है । जानखट के मन्दिरों के अवशेषों में ताड़ के वृक्ष के अस्तित्व का पता चलता है। वहाँ ताड़ की आकृति का अलंकरण भी मिला है । ताड़-स्तम्भशीर्ष तो पद्मावती और विदिशा दोनों ही स्थानों पर मिले हैं । इन दोनों को ही नागवंश की राजधानियाँ होने का गौरव प्राप्त हो चुका था। विदिशा के ताड़-स्तम्भशीर्ष की रचना अपेक्षाकृत सरल है। किन्तु पद्मावती के ताड़-स्तम्भशीर्ष में अलंकरण अधिक हैं । लगता है ये अलंकरण प्रारम्भ में तो नहीं होंगे, किन्तु कालान्तर में आ गये होंगे। लगता है कि ताड़ के इस प्रकार के उपयोग की नागों की अपनी ही कल्पना होगी, क्योंकि ताड़ का इस रूप में इतना अधिक प्रचलन अन्यत्र नहीं मिलता। For Private and Personal Use Only
SR No.020523
Book TitlePadmavati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Sharma
PublisherMadhyapradesh Hingi Granth Academy
Publication Year1971
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy