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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्मावती के ध्वंसावशेष : ४६ इस नर्तकी का एक अन्य वस्त्र उसकी साड़ी अथवा अधोवस्त्र है। इसके दोनों ओर अलंकरणार्थ किंकणियों की झालर लटक रही है। इसके पैरों में तनिक मोटे और भारी चूड़े हैं, जिनमें कोई सजावट नहीं दिखाई देती । वह कानों में झुमकीदार कर्णाभूषण भी पहने हुये है। दृश्य में अंकित अन्य मूर्तियों की वेशभूषा और आभरणों पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि नर्तकी को जिस लगन और सूक्ष्मता से सजाने-सँवारने का प्रयत्न किया गया है, उतनी सावधानी अन्य गायिका अथवा वादिका स्त्रियों के अलंकरण में नहीं बरती गयी है। मध्य नर्तकी के चारों ओर नौ अन्य स्त्रियाँ हैं जो गाने-बजाने में तल्लीन हैं। ये स्त्रियाँ अपनी विशेष आसन्दियों पर बैठी दिखायी गयी हैं। इनके वाद्य भी विविध प्रकार के हैं। जैसे दो तारों के वाद्य । समुद्रगुप्त की वीणा पर एक वीणा का चित्र अंकित मिलता है। इनमें से एक वाद्य उस चित्र से मेल खाता है। उस समय ढपली भी एक सामान्य वाद्य रहा होगा। एक स्त्री को ढपली बजाते हुए दिखाया गया है । इनमें से एक स्त्री की मुद्रा के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । अनुमानतः वह या तो पंखा लिये हुए है अथवा चमर डुला रही है । एक अन्य स्त्री मंजीर बजाने में तल्लीन है। उसके बगल में एक अन्य स्त्री है जो वाद्यविहीन अंकित की गयी है। उसके पास ही एक स्त्री मृदंग बजा रही है। पास ही कोने की मति खण्डित है। उसके निकट ही एक अन्य स्त्री है जो वेण बजा कर भावविह्वल-सी प्रतीत हो रही है। चित्र के मध्य में दीपक प्रकाशित हो रहा है । दीप और नेवैद्य मन्दिर के लिए आवश्यक हैं। इन स्त्रियों की वेशभूषा और वाद्यों की विविधता के साथ ही इनके केशविन्यास पर भी विशेष ध्यान दिया गया है । किन्हीं भी दो स्त्रियों का केशविन्यास एक जैसा प्रतीत नहीं होता । इस प्रकार के केशविन्यासों के विविध प्रकार हमें मृणमूर्तियों में भी मिलते हैं। मध्यदेश की संगीत तथा अन्य कलाओं की साधना किस सीमा तक पहुँच चुकी थी, उसका बड़ा मार्मिक चित्रण हमें इस अनुपम कलाकृति से मिल जाता है। केवल नत्य, गीत और वाद्य के प्रयोग से ही इस युग के मध्यदेशवासी के मानस में कल्लोलित स्वर-वैभव मुखर नहीं हुआ, उसकी यह लालित्य साधना की प्रवृत्ति मात्र तूली के मृदु माध्यम से ही नहीं व्यक्त हुई, परुष पाषाण पर छेनी के आघातों से भी लिखी गयी । पद्मावती में प्राप्त तोरण के प्रस्तर खण्ड में भी उसने उस पर खचित संगीतपरायणा बाला के अमर्त्य स्वरसंधान से अपनी तृप्ति की। जिसकी नृत्य मुद्राएँ भावुकों की घनीभूत अनुरक्ति के कारण पाषाण की हो गयी । उस काल के मध्यदेश की स्वर-साधना इस शिला खण्ड में अंकित वाद्यपुंज से तरंगित हो रही है। आज भी तत्कालीन संगीत युग की वेणु, वीणा, धनुर्वीणा, कांस्यताल आदि की समन्वित स्वर-मूर्च्छना पार्थिवता का प्राणिधान अनिर्वचनीय आनन्दानुभूति में कर रही है। तत्कालीन युग के मध्यदेश के निवासी ने युद्ध-भूमियों में उत्कृष्ट सफलता प्राप्त करने के पश्चात जिन वाद्यों से अपना विजय नाद किया था उसका हर्षोल्लास आज भी इस शिला खण्ड से सुनाई देता है । उस समाज की नादब्रह्म की आराधना की सीधी अभिव्यक्ति For Private and Personal Use Only
SR No.020523
Book TitlePadmavati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Sharma
PublisherMadhyapradesh Hingi Granth Academy
Publication Year1971
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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