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अध्याय चार
पद्मावती के ध्वंसावशेष
उत्खनन के पूर्व एवं उसके पश्चात् भी पवाया के निकटवर्ती क्षेत्र से ऐसे अनेक अवशेष मिले हैं, जो पद्मावती के प्राचीन स्वरूप पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । इन अवशेषों का अभी तक विधिवत् अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया है । इनमें से अधिकांश अवशेष जो पवाया के निकटवर्ती क्षेत्र से ही प्राप्त हुए हैं ऐसे हैं, जो हिन्दुओं की प्राचीन संस्कृति पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं । यदि पवाया के उस विस्तृत क्षेत्र का अनुमान लगाया जाय जिसमें ये अवशेष मिले हैं, तो उसका क्षेत्रफल लगभग दो वर्गमील होगा । इस ध्वंसावशेषपूर्ण क्षेत्रफल की तुलना विदिशा के निकट वेसनगर क्षेत्र से की जा सकती है ।
इस सम्बन्ध में यह बात भी उल्लेखनीय है कि ये अवशेष सिंध और पार्वती नदी के संगम तक ही सीमित नहीं हैं, अपितु ये इन दोनों नदियों के तटों पर पर्याप्त दूरी तक बिखरे पड़े हैं । इससे यह अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है, कि पार्वती और सिंध नदियों के संगम पर तो नगर का मुख्य भाग बसा होगा और नगर का विस्तार इन नदियों के किनारे-किनारे दूर तक रहा होगा । दो नदियों के संगम पर बसे नगरों की छटा प्रकृति का आश्रय पा कर बढ़ जाती है । पद्मावती भी एक भव्य नगरी रही होगी, जिसके सौन्दर्य का उल्लेख अन्यत्र किया जाता होगा ।
प्रारम्भ में पद्मावती की स्थिति के विषय में इतिहासकारों में बड़ा विवाद बना
कर रहा था, जैसा कि
रहा । कोई इतिहासकार इसे उज्जैन के निकट देखने का प्रयत्न कोषकार ने पद्मावती के अर्थों में उज्जयिनी का एक प्राचीन नाम दिया है । किसी-किसी इतिहासकार ने पद्मावती को वर्तमान नरवर के निकट देखा । लम्बे समय तक यह विवाद चलता रहा, तब जा कर कहीं यह निश्चय किया जा सका कि पद्मावती वर्तमान पद्मपवाया का ही प्राचीन नाम था । पद्मावती के निश्चयात्मक परिचय के श्रेय के भागीदार अन्य साधन तो हैं ही, किन्तु उत्खनन कार्य के द्वारा इस विषय में बड़ी सहायता मिली । उत्खनन कार्य के द्वारा प्राप्त सामग्री के अभाव में इस बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, कि यह नगर इतना गौरवशाली और भव्य रहा होगा, जैसा कि अब प्रतीत होने लगा है ।
उत्खनन के द्वारा कई इस प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनसे पद्मावती के तत्कालीन समाज के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश पड़ता है । नागवंशीय शासकों ने जीवन में धर्म को
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