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१४ : पद्मावती
चिह्न हैं, जो सिक्कों के चिह्नों से मेल खाते हैं । यह शिलालेख वीरसेन के राज्य काल के तेरहवें वर्ष का है। किन्तु इस शिलालेख की स्थापना क्यों की गई थी, इसका समुचित उत्तर नहीं मिलता। एक कारण यह भी है कि अधिक टूटा-फूटा होने के कारण उसकी स्थापना का प्रयोजन दृष्टिगोचर नहीं हो पाता।
___इस पर ग्रीष्म ऋतु के चौथे पक्ष की आठवीं तिथि अंकित होने का अनुमान लगाया जाता है।
वीरसेन के इस शिलालेख में पाये जाने वाले अक्षरों की बनावट हुविष्क और वासुदेव के उन शिलालेखों के अक्षरों के समान है, जो डॉ० बुहलर द्वारा प्रकाशित एपीग्राफिया इण्डिका के प्रथम और द्वितीय खण्ड में दिये गये हैं । वैसे अहिच्छत्र वाले सिक्के पर भी इसी प्रकार के अक्षर मिलते हैं। एपीग्राफिया इण्डिका के द्वितीय खण्ड के पृष्ठ २०५ की सामने वाली प्लेट पर कुषाण संवत् १० का एक चित्र दिया गया है । इस शिलालेख के स, क और न अक्षरों की खड़ी पाई वाली लकीरों का ऊपरी भाग अपेक्षाकृत मोटा है। वीरसेन के शिलालेख के भी इन अक्षरों में वैसी ही मोटाई मिलती है। स्वरों में 'इ' की रचना दोनों शिलालेखों में समान है । स्वरों की मात्राएँ भी लगभग वैसी ही हैं जैसी कुषाण संवत् ४ के मथुरा वाले शिलालेख नं० ११ की तीसरी पंक्ति के सह, दासेन एवं दानम् शब्दों में, संवत् १८ के शिलालेख नं० १३ की तीसरी पंक्ति में तथा दूसरी पंक्ति के 'गणातो' शब्द में तथा दूसरे शब्दों में आये हुये 'तो' में मिलती है । कुषाण संवत् ६८ के 'क्षुणे गणातो' में भी 'तौ' उसी प्रकार का है।
जानखट वाले शिलालेख में कुछ चिह्न ऐसे हैं जिनसे यह अनुमान लगाया जाता है कि वासुदेव के समय के शिलालेख अपेक्षाकृत बाद के हैं। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि वीरसेन वासुदेव कुषाण से पूर्व का होना चाहिये ।
३.३ पद्मावती का वनस्पर
पद्मावती में प्रधान रूप से नवनागों का राज्य रहा था, किन्तु उनके शासन से पूर्व भी एक शासक वहाँ शासन कर चुका था। पुराणों में इसका नाम वनस्पर दिया गया है। पुराणों में इस शब्द की कई विकृतियाँ हैं यथा विश्वस्फटि (क), विश्वस्फाणी और बिंबस्फटि । सारनाथ वाले शिलालेखों में वनस्फर अथवा वनस्पर का उल्लेख किया गया है (ई० आई० खण्ड ८, पृष्ठ १७३), इसमें वनस्पर को कनिष्क के शासन काल के तीसरे वर्ष में उस प्रान्त का क्षत्रप अथवा गवर्नर बताया गया है जिसमें बनारस पड़ता है। बाद में वनस्पर को क्षत्रप के पद से बड़ा महाक्षत्रप का पद मिल गया था । डॉ० जायसवाल ने वनस्पर का समय ६० ई० से १२० ई० तक का माना है।
१. स्वामिन् वीरसेन, संवत्सरे १०, ३-अं० यु० भा० पृष्ठ ३७ । २. पारजिट कृत पुराण टैक्स्ट की पाद टिप्पणी नं०४५। ३. अंधकारयुगीन भारत, पृष्ठ ७६ ।
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