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६८२॥
श्रयानन्तर कुछ इक पापकर्म के उपशमसे कुशध्वज नामा ब्राह्मण उसके सावित्री नामा स्त्री के प्रमा4। सकुन्दनाना पुत्र भया सो दुलम जिनधर्भका उपदेश पाय विचित्रमुनिक निकटमुनिभया काम क्रोध मद
मत्सरहरे प्रारंभ रहितमा निर्विकार तपकर दयावान निस्पृही जितेंद्री पक्षमास उपवासकरे जहां सूर्य अस हो वहां शून्य बनायेषे बैठ रह मूलगुण उतरगुणाका वारक वाईन परीपहका सहनहाग ग्रीषममें गिरिके शिखर रहे वर्षाने वृत्त तल बसे और शांत कालमें नदी मरोवरीके तट निवास करे इसभांति उतम क्रियाकर युक्त श्री सम्मेद शिखर की बदनाको गया वह निर्वाण क्षेत्र कल्याणका मंदिर जिसका चित क्न किये पापो का नारा होय वहां कनकप्रभ नामा विद्याधरकी विभूति आकाशमें देख मूर्ख ने निदान किया जो जिनधर्म के तपका माहात्म्य सत्य है तो ऐसी विभूति में भी पाऊं यहकथा भगवान के लीने विभी
पण को कही देखो जीवोंकी मृढ़ता तीन लोक जिसका मोल नहीं ऐसा अमोलिक तप रूपरत्न भोगरूपी । मूठी साग के अर्थ बेचा कर्मके प्रभाव कर जीवनकी विपर्यय बुद्धि होय हैं निदान कर दुःखित विषमतप
कर वह तीजे स्वर्गदेवभया वहां से चयकर भोगों विष है चित्त जिसका सोराजा रत्नश्रवा के राणी केकसी उसके गवणनामा पुत्र भया लंकामें महा विभूति पाई अनेक हैं आश्चर्यकारी वात जिसकी महा प्रतापी पृथिवी में प्रसिद्ध और धनदत्तका जीव रात्री भोजन के त्याग से सुर नर गति के सुख भोग श्री चन्द्रराजा होय पंचम स्वर्ग दश सागर सुख भोग बलदेव भया रूपकर बलकर विभूति कर जिस समान जगत में और दुर्लभहै महा मनोहर चन्द्रमासमान उज्वल यशका धारक और बमुदत्तका जीव अनुक्रमसे लक्ष्मी रूप लता के लपटानका वृक्ष बासुदेव भया उसके भवसुन वसुदत्त १ मृगरशूकर३
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