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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir पगम 18८१ पद्म भई और यह कन्या परमरूपवती सो अनेक राजावोंके पुत्र इसके परिणबेकी अभिलाषी भए और यह राजा विजयसेन का पोता शंभ जो रावण होनहारहै सो विशेष अनुरागी भया भोर पुरोहितश्रीभूति महा जिनधर्मी सो उसने जो मिथ्यादृष्टि कुवेर समान धनवान होय तौभी में पुत्री न दूं यह मेरेप्रतिज्ञाहै तब शंभुकुमारने रात्रि विष पुरोहितको मारा सो पुरोहित जिनधर्मके प्रसाद से स्वर्ग लोक विष देव भया और शंभुकुमार पापी बेदवती साक्षात देवी समान उसे न इच्छती को बलात्कार परणवे को उद्यमी भया वेदवतीके सर्वथा अभिलाषा नहीं तव कामकर प्रज्वलित इस पापीने जोरावरी कन्याको अलि गनकर मुख चुंम मैथुन किया तव कन्या विरक्त हृदय कांपे है शरीर जिसका अग्नि की शिखा समान प्रज्वलित अपने शील घातकर और पिताके घातकर परम दुःखको धरती लाल नेत्र होय महा कोप कर कहती भई अरे पापी तैंने मेरे पिताको मार मो कुमारीसे बलात्कार विषय सेवन किया सोनीच मैं-सेरे नाशका कारणं होऊंगी मेरा पिता ने मारासो बडा अनर्थ किया में पिताका मनोरथ कभी भी न उलधू मिथ्यादृष्टि सेवनसे मरण भला ऐसा कह वेदवती श्रीभूति पुरोहितकी कन्या हरिकांता आर्या के समीप जाय पार्यियाके व्रत लेय परम दुर्धर तप करती भई केश लुंच किये महातप कर रुधिर मांस मुकाय दिये प्रकट दीखे है अस्ति और नसा उसके तपकर मुखाय दिया है देह जिसने समाधि । मरणकर पांच में स्वर्ग गई पुग्यके उदयकर स्वर्गके सुख भोगे और शम्भु संसार विषे अनीतिके योग कर अति निन्दनाक भया कुटुम्ब सेवक और धनसे रहित भया उन्मतहोय गया जिनधर्भ परामुख भया साधुओं को देख हंसे निन्दा करे मद्यमांस शहत का ग्राहारी पाप किया विर्षे उद्यमी अशुभके | उदय कर नरक तियच विषे महा दुःख भागता भया । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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