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'पराया ॥६५५
| नरकमें तो उष्णका बाधा है और पांचवें नरक ऊपर ले तीनभाग ऊष्ण और नीचला चौथा भाग शीत
और छठे नरक शीतही हैं और सातमें महा शीत ऊपरले नरकों में ऊष्णता है सो महा विषम और नीचले नरकों में शीत है सो अति विषम नरककी भूमि महा दुस्सह परम दुर्गम हैं जहां राधि रुधिर का कीच है महादुर्गंध है श्वान सर्प मार्जार मनुष्य खर तुरंग ऊंट इनका मृतक शरीर सड़जाय उसकी दुर्गंधसे असं ख्यातगुणी दुर्गपहे वहां नानाप्रकार दुखोंके सर्वकारणहें और पवन महा प्रचण्ड विकरालचले है जिसकर भयंकर शब्द होय रहा है जे जीव विषय कपाय संयुक्त हैं कामी हैं क्रोधी हैं पंचइन्द्रियोंके लोलुपी हैं जैसे लोहेका गोला जलमें डूबे तैसे नरकमें ड्वें हैं जे जीवोंकी हिंसाकरें मृषाबाणी बोलें परघन हरें परस्त्रीसेवें महा प्रारम्भीपरिग्रही वे पाप के भार कर नरक के विषे पड़े हैं मनुष्य देह पाय जे निरन्तर भोगासक्त भये हैं जिनके जीभ क्श नहीं मन चंचल वे पापी प्रचण्ड कर्म के कर्णहारे नरक जाय हैं जे पाप करें करावें पापका अनुमोदना करें वे आर्तरौद्र ध्यानी नरक के पात्र हैं वह वजाग्नि के कुण्डमें डारिये हैं वजाग्नि के दाह कर जलते थके पुकारे हैं अग्नि कुण्डसे छूटे हैं तब वैतरणी नदीकी ओर शीतल जल की बांछा कर जाय हैं वहां जल महा चार दुर्गघ उसके स्पर्शही से शरीर गल जाय है । दुखका भाजन वैक्रियक शरीर उसकर पाय पर्यंत नाना प्रकार दुख भोगवे हैं पहिले नरक अायु उत्कृष्ट सागर १ दूजे तीन तीजे ७ चौथे १३ पांचवें १७ छठे २२ सातमें ३३ सो पूर्णकर मरे हैं मार से मरे नहीं वैतरणी के दुख से डर छायाके अर्थ असिपत्र बन में जाय हैं वहां खडग बाण बरछी कटारी समान पत्र असराल पान कर पड़े हैं तिनकर तिनका शरीर विदारा जायहै पछाड़ खाय भूमि में पड़े हैं और तिन का
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