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पद्म
॥८६॥
तिनकर पृथिवी पीड़ित होयगी किसाण दुखी होवेंगे प्रजानिर्धन होयगी महा हिंसकजीव परजीवों कंघातक होवेंगे निरन्तर हिंसाकी बढ़वारी होयगी पुत्र मातापिताकीआज्ञासे विमुखहोवेगेौरमाता पिताभीरनेहरहित होवगे और कलिकाल में राजा लुटेरे होवेंगे कोई सुखी नजर न श्रावेगा कहिये के सुखी वे पापचिस दुर्गति की दायक कुकथा कर परस्पर पाप उपजावेंगे। हे शत्रु घन कलिकाल में कषाय की बहुलता होगी और अतिशय समस्त विलय जावेंगे चारण मुनि देवविद्यधरों का प्रावना न होयगा अज्ञानी लोक नग्नमुद्राके धारक मुनियोंको देख निन्दा करेंगे मलिनचित्त मूढजन अयोग्यको योग्य जानेंगे जैसे पतंग दीपक की शिखा में पड़े तैसे अज्ञानी पाप पन्थ में पड़ दुर्गति के दुख भोगेंगे और जे महा शांत स्वभाव तिन की दुष्ट निन्दा करेंगे विषयी जीवों को भक्ति कर पूजेंगे दीन अनाथ जीवों को दयाभाव कर कोई न देवेगा और मायाचारी दुराचारियों को लोक देवेंगे सो वृथा जायगा जैसे शला में बीज बोय निरन्तर सीचे तोभी कुछ कार्य कारी नहीं तैसे कुशील पुरुषों को विनय भक्तिकर दीया कल्याण कारी नहीं, जो कोई मुनियोंकी अवज्ञाकरे है और मिथामार्गीयों को भक्तिकरपूजे है सोमलयागिरिचन्दन को तज कर कंटकवृक्ष को अंगीकार करें है असा जानकर हे वत्स तू दोन पूजाकर जन्म कृतार्थ कर गृहस्थी को दान पूजा ही कल्याणकारी है और समस्त मथुरा के लोकधर्म में तत्पर होवो, दया पालो साधर्मीयों से वात्सल्य धारो, जिनशासन की प्रभावना करो घर घर जिनविंव थापो पुजा अभिषेक की प्रवृति करो जिसकर सवशांति हो, जो जिनधर्म का पाराधन न करेगा और जिस के घरमें जिन पजा न होगी दान न | होवेगा उसे आपदा पीडेगी जैसे मृग को व्याघी भषे तैसे धर्म रहित को मरी भपेगी, अंगुष्ठ प्रमाण भी
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