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"विध्वंश किए शत्रुधन के सनमुख मधुका कोई योधा न ठहरसकाजैसेजिनशासन के पंडित स्यादवारी तिन | पुराण के सन्मुख एकांतवादी नठहिर सके जो मनुष्य शत्रुघन से युद्ध किया चाहे हैं सो तत्काल विनासको
पावें जैसे सिंहके आगे मृग मधुकी समस्त सेनाके लोक अति व्याकुल होय मधुके शरमात्राये सो मधु महा सुभठ शत्रुधनको सनभुख श्रावतादेख शत्रुघनके रथकी ध्वजा छेदी और शत्रुघनने बामों कर उसके स्थके अश्व हते तबमधु पर्वत समान जो बरुणेंद्र गज उसपर चढ़ा क्रोधकर प्रज्वलित है शरीराजिसका शत्रुधन को निरंतर बाणों कर आछादने लगाजेसे महामेघ सूर्यको श्राछादे सो शत्रघ्न महा शूरबीरने उसके बाणछेद डारे और मधुका बखतर भेदा जैसे अपने घर कोई पाहुनाथावे औरउस की भले मनुष्य भलीभांति पाहुन गतिकरे तैसे शत्रघ्न मधुकी रणविषे शस्त्रोंकर पाहुणगतिकरताभया
अथान्तर मधुमहा विवकी शत्रुधनको दुर्जयजान आपको त्रिशूल श्रायुधसे रहित जान पुत्रकी मृतु देख और अपनी प्रायुभीअल्पजान मुनियोंके वचन चितारता भया अहोजगतका समस्तही श्रारंभ महा हिंसारूप दुखका देनहारा सर्वथा ताज्यहै यह क्षण भंगुर संसारका चारित्र उसमें मूढजनराचे इस विषे धर्मही प्रशंसायोग्य है और अधर्मकाकारण अशुभ कर्म प्रशंशा योग्यनहीं महा निध यह पाप कर्भ नरक निगोद का कारण है जो दुर्लभ मनुष्य देह को पाय धर्म विषे बुद्धि नहीं धरे है सो प्राणी मोह कर्म कर उगाया अनन्त भव भ्रमणकरे हैं में पापी ने संसार असार को सार जाना क्षण भंगुर शरीर को ध्रुबजाना, आत्म हित न किया प्रमाद विषे प्रवरता रोग समान ये इन्द्रीयों के भोग भले जान भोगे, जब मैं स्वाधीन था तब मुझे सुबुधि नपाई, अब अन्तकाल आया अब क्या करूं घरको आग
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