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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भया, दोनों महायोघा सिंह समान बलवान् गजों पर चढ़े क्रोध सहित युद्ध करते भए, उसने उस को पा स्थ रहित किया और उसने उसको, फिर कृतांतवक ने लवणार्णव के वक्षस्थल में बाण लगाया और उस कावषतर भेदा तब लवणार्णव कृतांतवक ऊपर तोमर जातिका शस्त्र चलावता भया क्रोध कर लाल हैं नेत्र जिस के दोनों घायल भए. रुधिर कर रंग रहे हैं वस्त्र जिन के, महा सुभटता के स्वरूप दोनों | क्रोष कर उद्धत फूले केसू के वृक्ष समान सोहते भए, गदा खड्ग चक्र इत्यादि अनेक आयुधोंकर परस्पर दोनों महा भयंकर युद्ध करते भए बल उन्माद विषाद के भरे बहुत बेर लग युद्ध भया, कृतांतवक ने लवणार्णव के वक्षस्थल में घाव किया, सो पृथिवी में पड़ा जैसे पुण्य के क्षय से स्वर्गवासी देव मध्य लोक में प्राय पहें लवणार्णव प्राणान्त भया, तब पुत्रको पड़ा देख मधु कृतांतवक्र पर दौड़ा सब शत्रुन्न ने मधु को रोका, जैसे नदो के प्रवाह को पर्वत रोके मधु महा दुस्सह शोक और कोप का भरा युद्ध करता | भयो सो प्राशो विष की दृष्टि समान मधु की दृष्टि शत्रुन की सेना के लोक न सहार सकतेभए जैसे उग्र पवन के योग से पत्रों के समूह चलायमान होय तैसे लोक चलायमान भए फिर शत्रुघ्न को मधु के सनमुख जाता देख धीर्य को प्राप्त भए शत्रु के भयकर लोक तबलगही डरें जवलग अपने स्वामी को प्रबल न देखें और स्वामी को प्रसन्न बदन देख धीर्य को प्राप्त होंय शत्रुघ्न उत्तम रथ पर आरूढ़ मनोग्य धनुष हाथ में सुन्दर हारकर शोभे है वक्षस्थल जिसका सिर पर मुकट घरे मनोहर कुण्डल पहिरे शरद के सूर्य समान महातेजस्वी अखण्डित है गति जिसकी शत्रु के सन्मुख जाता अति सोहता भया. जैसे गजराज || पर जाता मृगराज सोहे, और जैसे अग्नि सूके पत्रों को जलावे तैसे मधु के अनेक योधा क्षणमात्र में For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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