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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अानन्द के करणहारे दे दोनों भाई महाभोगोंके भोगतामन वांछित सुख भोगते भये इंद्र प्रतींद्र समान आनन्द कर पूर्ण लंका विषेरमतेभये सीता विषे हे अत्यन्त राग जिनका ऐसे श्रीराम तिन्होंने छहवर्ष लंका में व्यतीत किये सुखके सागरमें मरन सुन्दर चेष्टाकेधरण हारे श्रीरामचन्द्र सकलदुःख भूलगए॥ अथान्तर इंद्रजीतमुनि सर्व पापोंके हरनहारे अनेकऋद्धिसहितागजमान पृथिवी विष विहार करते भये वैराग्यरूप पवनकर प्रेरी ध्यानरूप अग्निकर कर्मरूपवन भस्मकिये कैसा है ध्यानरूप अग्नि क्षायक सम्यक्तहप अरण्यकी लकडी उसकर करहै और मेघवाहन मुनिभी विषयरूपईंधनको अग्नि समान प्रारम ध्यानकर भस्मकरते भये केवलज्ञानको प्राप्तभय केवलज्ञान जीवका निजस्वभावहै और कुम्भकर्ण मुनि सम्यक दर्शन ज्ञानचारित्र के धारक शुक्ल लेश्या कर निर्मल जो शुक्लध्यान उसके प्रभावकर केवलज्ञान को प्राप्त भये लोक और अलोक इनको अवलोकन करते मोहरज रहित इंद्रजीत कुम्भकर्ण केवलीश्रायु पूर्णकर अनेक मुनियों सहित नर्मदाके तीर सिद्धपद को प्राप्त भये सुरसुर मनुष्योंके अधिपतियोंकर गाइये है उत्तम र्कीति जिनकी शुद्ध शीलके धारणहारे महादेदीप्यमान जगत बंधु समस्त ज्ञेयकेज्ञाता जिनके ज्ञान समुद्रमें लोकालोक गायके खुर समान भासे संसारका क्लेश महा विषम उसके जालसे निकसे जिसस्थानक गए फिरयत्न नहीं वहां प्राप्त भये उपमा रहित निर्विघ्न अखंडमुखको प्राप्त भये जे कुंभकर्णादिक अनेक सिद्ध भये वे जिनसासनके श्रोतावों को अरोग्य पद देवें नाश किये हैं कर्म शत्रु जिन्होंने वे जिनस्थानकों से सिद्धभए हैं वे स्थानक अद्यपि देखिये हैं वे तीर्थ भब्योंकर बंदवेयोग्य हैं विंध्याचलकी बनी विषे इंद्रजीत मेघनाद तिष्ठेसो तीर्थ मेघरवकहा है और जम्बूमाली महा बलवान | । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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