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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ॥७३॥ ___अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रोणक से कहे हैं हे भव्योत्तम दोनोंही सेना विषे तृषावंतों को शीतल मिष्टजल प्याइये है और क्षुधावन्तों को अमृत समानाहार दीजिए है और खेद वन्तोंको मलया गिरि चन्दन से छिडकिये है ताडवृक्ष के बीजने से पवन करिये है बरफके बारिसे छांटिये है तथा और भी उपचार अनेक कीजिए है अपना पराया कोई होवे सब के यत्न कीजिए हैं यही संग्रामकी रीति है दश दिन युद्ध करते भए दोनों ही महाबीर अभंग चित राबण लक्ष्मण दोनों समान जैसा वह तैग्गवह सो यक्ष गंधर्व किन्नर अप्सरा आश्चर्य को प्राप्त भए और दोनों का यश करते भए दोनों पर पुष्प वर्षा करी और एक चन्द्रवर्धन नामा विद्याधर उसकी अाठ पत्री सो प्राकारा विषे विमान में बैठी देखें तिनको कौतूहल से अप्सरा पूछती भई तुम देवायों सारिखी कौन हो तुम्हारी लक्षमण में अधिक भक्ति दीखे है और तुम सुन्दर सुकमार शरीर हो तब बे लज्या सहित कहती भई तुमको कौतूहल है तो सुनो जवसीता का स्वयम्बर हुअा तब हमारा पिता हम सहित वहां आया था, वहां लक्षमण को देख हम को देनी करी और हमारा भी मन लक्षमण में मोहित भड़ा, सो अब यह संग्राम विषे वर्ते है नजानिए क्या होय यह मनुष्यां में चन्द्रमा समान प्राणनाथहै जो इसकी दशा सो हमारी ऐसे इनके मनोहर शब्द सुनकर लक्षमण ऊपर को चोंके, तब वे घाटों ही कन्या इनके देखवेकर परम हर्षको प्राप्तभई और कहती भई हेनाथ सर्वथा तुम्हारा कार्य सिद्ध होवे तब लक्षमण को विघ्नबाण का उपाय सिद्धवाण याद आया, और प्रसन्न बदन भया सिद्धवाण चलाय विघ्नवाण विलय किया और अाप महाप्रताप रूप युद्ध को उधमी भया। जो जो शस्त्र रावण चलावे सो सो राम का बीर महा धीर शस्त्रों विष प्रवीण छेद डारे, और अाप । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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