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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ॥६६॥ और संग्रामसे जीत प्रावोगे ऐसा कहाऔर हजारां स्त्रियोंकर अवलोका संता राक्षसों का नाथ मंदिर से बाहिर गया महा विकटताको धरे विद्याकर निरमापा ऐंद्रीनामा रथ उसे देखताभया जिसके हजार हाथी जुमानों कारी घयका मेघही है वे हाथी मदोन्मत्त झरे हैं मद जिनके मोतियोंकी मालातिन कर पूर्ण महा घटाके नादकर युक्त ऐरावतसमान नानाप्रकारके रंगोंसे शोभित जिनका जीतना कठिन और विनयके धाम अत्यन गर्जनाकर शोभित ऐसे सोहते भए मानों कारी घटाके समूहहीं हैं मनोहर है प्रभा जिनकी ऐसे हाथियों के रथ चढा रावणा सोहताभया भुजबन्ध कर शोभायमान हैं भुजा जिसकी मानों साक्षात् इन्द्रही है विस्तीर्ण हैं नेत्र जिसके अनुपमहे श्राकार जिसका और तेजकर सकल लोकमें श्रेष्ठ १० हजार आप समान विद्याधर तिनके मंडलकर युक्तरणमें पाया सोवे महा बलवानदेवों सारिखे अभिप्रायके वेत्ता रावणको अाया देख मुग्रीव हनूमान क्रोधको प्राप्तभए और जब रावण चढा तब अत्यन्त अपशकनभए भयानक शब्दभए और आकाश विषे गृध्र भ्रमतेभए आछादित किया है सूर्यका प्रकाश जिन्होंने सोये तयके सूचक अपशकुनभए परंतु गवणके सुभट न मानतेभए युद्धको पाएही और श्रीरामचंद्र अपनी सेना विषे तिष्ठते सोलोकोंसे पूछतभए हे लोको इस नगरीके समीप यह कौन पर्वत है तब सुषेणादिक तो तत्कालही जवाब न देय सके और जांबूवादिक कहतेभए यह बहुरूपिणी विद्या से रचा पद्मनागनामा रथहै घनेयोंको मृत्युका कारण अंगदने नगरमें जायकर रावणको क्रोध उपजाया सो अब बहुरूपिणी विद्या सिद्धभई हमसे महाशत्रुता लिएहै सो तिनके बचन सुनकर लक्षमण सारथीसे कहताभया मेरा रथ शीघूही चलाय तब सारथीने रथ चलाया और जैसे समुद्र गाजे ऐसे वादित्र बाजे For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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