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पुगण ॥४८॥
जो हम चक्रवर्तीयों से समर्थ नहीं जो तू कह तो सर्वदैत्यों को जीतू देवों को वश करूं जो तोसे अप्रिय होय उसे वशीभूत करू और विद्याधर तो मेरे तृण समान हैं यह विद्या के बचन सुन रावण योग पूर्ण से ज्योति का धारक उदार चेष्टा का धरण हारा शान्तिनाथ के चैत्यालय की प्रदक्षिणा करतो भया उस ही समय अंगद मन्दोदरी को छोड अाकाश गमन से राम के समीप पाया कैसा है अंगद सूर्य समान है तेज जिसका ॥
॥ इकहत्तरिमा पर्व सम्पूणम् ॥ ___ अथानन्तर रावणकी अट्ठारह हजारस्त्री रावणके पास एक साथ सर्व ही रुदन करतीभई सुन्दर हैं दर्शन जिन के हे स्वामिन् सर्व विद्याधरों के अधीश तुम हमारे प्रभु सो तुम के होते सन्ते मूर्ख अंगद ने
आयकर हमारा अपमान किया तुम परम तेजके धारक सूर्य समान सो ध्यानारूदथे और विद्याधर अाज्ञा समान, सो तुम्हारे मूह अगिला छोहरा सुग्रीव का पुत्र पापो हम को उपद्रव करे, सुन कर तिनके वचन रावण सब की दिलासा करता भया और कहता भया हे प्रिये! वह पापी ऐसी चेष्टा करे है सो मृत्यु के पाश से बंधा है तुम दुख तजो जैसे सदा आनन्द रूप रहो हो उसी भान्ति रहो में सुग्रीव को निग्रीव कहिए मस्तक रहित भूमि पर प्रभात ही करूंगा और वे दोनों भाई राम लक्ष्मण भूमिगोचरी कीट समान हैंतिन पर क्या कोप, ये दुष्टविद्याधर सब इन पै भेले भए हैं तिन का क्षय करूंगा, हे पिये मेरी भोंह टेढी करनेही में शत्रु विलाय जाय और अब तो बहुरूपणी महाविद्या सिद्धभई मोसे शत्रु कहां जी इस भांति
सर्व स्त्रियों को महा धीर्य बंधाय मन में जानता भया में शत्रु हते भगवानके मंदिर से व.हिर निकसा | नाना प्रकार के वादित्र बाजते भए गीत नृत्य होते भए रावण का अभिषेक भया कामदेव समान |
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