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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पाया ६९४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रीति है जिसने जिसको मारा सो वहभी उसका मारनहारा है और जिसने जिसको छुडाया सो उसका छुडावन हारा है इस लोकमें यही मर्यादा है एक कुशस्थल नामा नगर वहां दोय भाई निर्धन एक माता के पुत्र इंधक और पल्लव ब्राह्मण खेती का कर्म करें पुत्र स्त्री श्रादि जिनके कुटुम्ब बहुत स्वभावही से दया वान साधुवों की निंदा परांमुख सो एक जैनी मित्र के प्रसंग से दानादि धर्म के धारक भए और एक दूजा निर्धन युगुल सो महा निर्दई मिथ्यामार्गी थे राजा के दान बटासो वित्रों में परस्पर कलह भया सो इंध कपल्लव को इन दुष्टों ने मारा सो दान के प्रसाद से मध्यभोग भूमि में उपजे दोय पल्य की आयु पाय सो देव भए और वे क्रूर इसके मारणहारे अधर्म परणामों से मूवे सो कालिंजर नामा इन में सूस्या भए मिथ्या दृष्टि साधुवों के निंदक पापी कपटी तिनकी यही गति है फिर तिर्यंचगति में चिरकाल भ्रमण कर मनुष्य भए सो तापसी भए बढ़ी है जटा जिनके फल पत्रादिक के आहारी तीव्रं तपकर शरीर वृश किया कुज्ञान के अधिकारी दोनों मूए सो विजियार्ध की दक्षिण श्रेणि में अरिंजयपुर वहां का राजा अग्निकुमार राणी अश्विनी ताके ये दोय पुत्र जगत् प्रसिद्ध रावण के सेनापति भए और वे दोनों भाई इंधक और पल्लव देवलोक से चयकर मनुष्य भए फिर श्रावग के व्रतपाल स्वर्ग में उत्तम देव भए और स्वर्ग से चय किहकंधपुर में नल नील दोनों भाई भए पहिले हस्त प्रहस्त के जीवने नल नील के जीव मारे थे सो न नील ने हस्त प्रहस्त मारे जो कोहू को मारे है सो उससे भारा जाय है और जो काहू को पाले है सो उससे पालिए है और जो जासू उदासीन रहे है सो भी तासू दासीन रहे जिसेदेख निःकारण क्रोध उपजे सो जानिए परभव का शत्रु है और जिसे देख चित्त हर्षित होय सो निस्संदेह पर भक्कामित्र है जो जल में For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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