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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म हो निश्वासरूप अग्निकर अपरश्याप झेयगए कभी कह २ शब्दको कभी अपने केश बखरे कभी बांधे। ME कभी जंभाईलेय, कभी मुखपर अवन बारे कभी रख सब पहिरुलेय सांताके चित्राम बनावे कभी प्रश्नु । पातका कार्य करे, दानश्या हाहाकार शब्दको मदन महकर पीडित अनेक चेक्षा करे माशारूप इंधन । कर प्रज्वलित जो कामरूप अरिन इसकर उसका हृदयजरे और शरीर जले कभी मममें चितके कि में कौन अवस्थाको प्रासया जिसकर अपना शरीरभी नहीं पार सफूई. में अनेक मढ़ और सागरके मध्य तिष्ठे बड़े बड़े विद्याधर युद्धविषे हजारां जीते और लोक विष प्रसिद्ध जो इंद्र नामा विद्यावस्सो कदीगृह विषे डारां अनेक युद्ध लिखे जीते राजाओं के समूह अब मोहकर उनमत्तभया में मास्के कर प्रवर्ता हूं गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे राजन रावणतो कामके वश भया और विश्रीषम्मा महा बुद्धिमान मात्र दिखे विषुमाचे सब मंत्रियोंको हकवाकर मंत्र विच्चस कैसाहै विभीषणा रस्वा के राज्यका भार जिसके सिरपर पड़ा है समस्त शास्त्रोंके ज्ञानरूप जलकर धोयाहे मनरूप मैल जिसने रावणके उस समान और हितु नहीं विभीषण को सर्वथा रावणके हितहीका चितवन है सो मंत्रियों से काल्ताभया श्रो बृद्धाहो राजाकी तो यह दशा अब अपने तांई क्या कर्तव्य सो कहो तब विभीषण के बचन सुन संभिन्नमति मंत्री कहता भया हम क्या कहें सर्वकार्य बिगडा रावणकी दाहिनी भुजा खरदूषणथा. सो मुवा और विराषित क्या पदार्थ सो स्यालसे सिंभया लक्ष्मणके युद्ध विशे सहाई भया और वानरवंशी जोरसे बस रहे हैं इम्फा भाकार को रुकू औरही और इनके चित्समें कलु और ही जैसे: सर्प कास्त्रो मल्ममाही विष प्और पलका पुत्र जो हनुमान सो खखूपयकी पुत्री भसंग For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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