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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म का बिहारभया तिनके प्रभावकर वृतादिकभए यह बन देवोंको भी भयंकरहै विद्याधरोंकी क्या बात सिंह | ison ब्याज अष्टापद दि अनेक जीवोंसे भरा और नाना प्रकारके पक्षियोंकर शब्दरूपहै और अनेक प्रकार के घान्यसे पूर्णहै वह राजादंडक महा प्रबल शक्तिका धारकथा सो अपराधकर नरक तिर्यंचगति विषे बहुत काल भूमणकर यह गृधू पक्षी भया अव इसके पापकर्म की निवृतिभई हमको देख पूर्वभव स्मरण भया ऐसा जान जिनाज्ञा मान शरीर भोगसे विरक्तहोय धर्म विषे सावधान होना परजीवोंका जो दृष्टांतहे सो अपनी शांतभावकी उत्पतिका कारणहै इस पक्षीको अपनी विपरीत चेष्टा पूर्वभवकी याद आई है सो कंपायमानहै पचीपर दयालुहोय मुनि कहत भए हे भव्य अब तू भयमत करे जिससमय में जैसी होनी होय सो होय रुदन काहेको करे है होनहारके मेटवे समर्थ कोई नहीं अबतू विश्राम को पाय सुखीहोय पश्चाताप तजदेख कहां यहवन और कहां सीतासहित श्रीरामका श्रावना और कहां हमारा बनचर्याका अवग्रह जो बनमें श्रावगके श्राहार मिलेगा तो लेवेंगे और कहीं तेरा हम को देख प्रतिबोध होना कर्मों की गति विचित्र है कर्मोंकी विचित्रता से जगत की विचित्रता है हम ने जो अनुभया और सुना देखाहै सो कहें हैं पक्षीके प्रतिबोधवेके अर्थ रामका अभिप्राय जान सुगुप्ति मुनि अपना और गुप्तिमुनि दूजा दोनोंका वैराग्यका कारण कहतभए एक वाराणसी नगरी वहां अचल नामाराजा विख्यात उसके राणी गिरदेवी गुणरूप रत्नोंकर शेभित उसके एकदिन त्रिगुप्तिनामा मुनि शुभ चेष्ठ के घरनहारे पाहारके अर्थ पाए । सो गणीने परमश्रद्धाकर तिनको विधि पूर्वक श्राहार दिया । जव निरन्तराय अाहारहो चुका तब राणीने मुनिको पूछाहे नाथ यहमेरागृहवाससफल होयगा। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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