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पुरास
॥५४॥
नदी के समीप दंडक बन सुनिये है वहां भूमिगोचरियोंकी गम्यता नहीं और वहां भरतकी आज्ञा का | भी प्रवेश नहीं वहां समुद्र के तट एक स्थानक बनाय निवास करेंगे यह रामकी शाज्ञा सुन लक्षमलने विनती करी हे नाथ आप जो आझ करोगे सोई होयगा ऐसाविचार दोनोंवीर महा धीर इन्द्रसारिखेभोग भोग वंशगिरिसे सीतासहित चले राजा सुप्रभ वंशस्थलपुर का पति लार चला सो दूरतक गया आप विदाकिया सो मुश्किलसे पीछे बाहुडा महा शोकवन्तअपने नगरमें पाया श्रीरामका विरह कौनकौनकों शोकवन्त न करेगौतम स्वामी राजाश्रेणिकसे कहे हैं हे राजन् ! वह वंशगिरिबड़ापर्वत जहां अनेक धातु सो रामचन्द्र ने जिन मंदिरोंकी पंक्ति कर महा शोभायमान किया कैसे हैं जिन मन्दिर दिशावोंके समूह | को अपनी कांतिसे प्रकाशरूपकरे हैं उस गिरि पर श्रीरामने परम सुन्दर जिन मन्दिर बनाए सो वैशगिरि समगिरि कहाया इस पृथिवी पर प्रसिद्धभया रवि समान है प्रभा जिसकी । इति चालीसवां पर्व संपूर्णम् ___अथानन्तर राजा अरण्य के पोता दशरथ के पुत्र राम लक्षमण सीतासहित दक्षण दिशाके समुद्र को चले कैसे हैं दोनों भाई महो सुःख के भोक्ता नगर ग्राम तिनकरभरे जे अनेक देश तिनको उलंघ करे महा बनमें प्रवेश करतेभये जहां अनेक मृगों के समूह हैं और मार्ग सूझे नहीं और उत्तम पुरुथे। की वस्ती नहीं जहां विषम स्थानक सो भीलभी विचर न सके नाना प्रकारके वृक्ष और बेल उन कर भरा महा विषम अति अन्धकार रूप जहां पर्वतोंकी गुफा गम्भीर निझरने झरें हैं उस बनमें जानकी प्रसंग से धीरे धीरे एक एक कोस रोज क्ले दोनों भाई निर्भय अनेक क्रीडा करणहारे करनरवानदी । पहुंचे जिसके तट महा स्मणीक प्रचुर तृणोंके समूह और सामानता धरै महाकायाकारी अनेकवृक्षफल,
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