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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पन ॥५४॥ सीता राम लक्षमण से कहती भई जहां यह सब लोक जाय हैं वहाँ आप भी चलें जे नीतिशास्त्र के वेत्ता हैं वे देश कोल कोजान कर पुरुषार्थ करे हैं वे कदाचित् आपदा को नहीं प्राप्त होय हैं तब दोनों धीर हंसकर कहते भए तू भय कर बहुत कायार है सो यह लोकजहांजायहें वहां तू भीजा प्रभात सब आवेतब तू भीपाइयो हम तो आजइसगिरि परे रहेंगे यह अत्यन्त भयानक कौन की ध्वनि होयहै सो देखेंगे यही निश्चय है यह लोक रंक हैं भयकर पशु बालकों को लेय भागे हैं हमको किसी का भय नहीं तव सीता कहती भई तुम्हारे हठको कौन हरिख समर्थ तुम्हारा अाग्रहदुर्निबार है ऐसा कहकर वह पतिव्रता पति के पीछे चली खिन्न भए हैं चरण जिसके पहाड़के शिखर पर ऐसी शोभे मानों निर्मल चन्द्रकांति ही है श्रीराम के पीछे और लक्षमण के आगे सीता कैसी सोहे मानों चन्द्र कांति और इन्द्रनील मणिके मध्यपुष्पराग मणिही है उस पर्वतका आभूषण होती भई राम लक्षमण को यह डर है कि कहीं यह गिरिसे। गिरन पड़े इसलिये इसका हाथ पकड़ लिएजायहें वे निर्भय पुरुषोत्तम विषम, पाषाण जिसके ऐसे पर्वत । को उलंघकर सीतासहित शिखरपरजाय पहुंचे। वहां देशभूषण और कुलभूषण नामादोयमुनि महाप्यानास्ट दोनों भुज लुबाए कायोत्सर्ग आसनघरे खड़े परमतेजकर युक्तसमुद्र सारिखेगंभीर गिरिसारिखेस्थिर शरीर और आत्मा को भिन्न भिन्न जाननहारे मोह रहित नग्न स्वरूप यथाजातरूपके धरनहारे कान्तिके सागर नवयौवन परमसुन्दर महा संयमी श्रेष्ठ हे आकार जिन के जिनभाषित धर्म के आराधनहारे तिन | को श्रीराम लक्षमण देखकर हाथ जोड़ नमस्कार करते भए। और बहुत आश्चर्य को प्राप्त भए चित्त में | | चितवते भए कि संसार के सर्वकार्य प्रसारहैं दुःख के कारण हैं मित्र द्रव्य स्री सर्व कुटुम्ब औरइन्द्रियजनित | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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