________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥५२३
श्रादर न कियासो मेरा मन पश्चाताप रूप अग्निसे तप है तुम महारूपवान तुमको देखे महा क्रोधी का पुगण क्रोध जाता रहे और आश्चर्यको प्राप्तहोय ऐसा कहकर सोचकर गृहस्थकपिल रुदनकरताभया तब श्री
रामने शुभ बचनसे संतोषा और सुशर्मा ब्राह्मणीको जानकी संतोषती भई फिर राघवकी आज्ञा पाय स्वर्ण के कलशोंसे सेवकोंने द्विजकी स्त्रीसहित स्नान कराया और श्रादरसे भोजन कराया नानाप्रकार के बस्त्र और रनोंके आभूषण दिए बहुत धन दियासो लेकर कपिल अपने घर पाया मनुष्यों को विस्मयका करणहारा धन इसकेभया यद्यपि इसके घरमें सब उपकार सामग्रीअपूर्व है तथापि इसप्रवीणका परिणाम विरक्त घरमें श्रासक्त नहीं मनमें विचारतामया आगेमें काष्ठके भारका वहनहारा दरिद्रीया सो श्रीरामदेवने तृप्त किया इसी ग्राम विषे में सोषत शरीर अभूषितथा सो गमने कुवेर समान किया चिन्ता दुःख सहत किया मेरा घर जीर्ण तृण का जिसके अनेक छिद्रकादि अशुचि पत्तियों की पीट कर लिप्त था अब रामके प्रसादसे अनेक खणके महिलभए बहुत गोधन बहुत धन किसी वस्तु की कमी नहीं हाय २ में दुर्बुद्धि क्या किया वे दोनों भाई चन्द्रमा समान बदन जिनके कमल नेव मेरेघर पाए थे ग्रीषमके श्रातापसे तप्तायमान सीतासहितसो मैंने घरसे निकासे इस बातकी मेरे हृदयमेंमहा शल्प. जबलग घरमें बसूहूं तोलग खेदमिटे नहीं इस लिएगृहारम्भका परित्यागकर जिनदीचा श्रादरू जवयह बिचारी तबइसको वैशम्यरूपजानसमस्त कुटुम्ब के लोक और सुशर्माब्राह्मणी रूदनकरतेभएतब कपिलसवको शोकसागर में मग्न देख निर्ममत्वबुाद्धकर कहता भया कैसा है कपिल शिव सुखमें है. अभि लाग जिसकी हो प्राणी हो परिवारके स्नेहसे और नाना प्रकार के मनोरथों से यह मूढ़ जीव भव ताप ॥
For Private and Personal Use Only