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पद्म
पुराच
।। ५१०
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मूर्द्धा खायगई और रुदन करती भई तब श्रीरामचन्द्र ने अत्यन्त मधुरवचन कहकर धीर्य बँधाया सीता गोदमें ले बैठी मुख धोया और लक्ष्मण कहतेभये हे सुन्दरी सोच तज और पुरुषका भेषकर राज्य कर कईएक दिनोंमें ग्लेंडों को पकड़े और तेरे पिताको छूटाजान, ऐसा कहकर परम हर्षउपजाया सो इनके वचन सुनकर कन्या पिताको छूटाही जानती भई श्रीराम लक्ष्मण देवोंकी न्याई तीनदिन यहां बहुत प्रदर से रहें फिर रात्रिमें सीता सहित उपवन से निकसकर मोप चलेगए प्रभात समय कन्या जग्गी तिनको न देख व्याकुलभाई और कहती भई वे महापुरूष मेरा मन हरलेगये मुझपापिनीको नींद आ गई सो गोवचलेगए इस भांति विलापकर मनको थॉभ हाथीपर चढ़ पुरुषके भेष नगर में गई और राम लक्ष्मण कल्याण माला के विनयकर इरागयाहै चित्त जिनका अनुक्रमसे मेकला नामा नदी पहुंचे नदीउतर क्रीड़ा करते अनेक देशोंको उलंघ बिन्ध्याटवीको प्राप्तभए पंथमें जातेहुये गुवालोंने मने कीए कि यह अटवी भयानक है तुम्हारे जाने योग्य नहीं तब आप उनकी बात न मानी चलेहीगए कैसी है वनी कहींएक लताकर मंडित जे शालवृक्षादिक उनसे शोभित है और नानाप्रकार के सुगंध वृक्षोंकर भरी महा सुगन्धरूपहै और कहीं एक दावानलकर जले वृक्ष तिनकर शोभारहित है जैसे कुपुत्रकर कलंकित गोत्र न शोभे ।
अथानन्तर सीता कहती भई कंटकवृत्तके ऊपर बाई और काग बैठा है सो यहतो कलहकी सूचना कर है और दूसरा एक काग चीर वृक्ष पर बैठा है सो जीत दिखावे है इसलिये एक महूर्त्त स्थिरताकरो इस मुहूर्त में चले मागे कलह अन्त जीत है मेरे चित्तमें ऐसा भासे है तब चणएक दोनों भाई थंभे फिर चले आगे म्लेछों की सेना दृष्टि पड़ी वे दोनों भाई निर्भय धनुषवाण घरे म्लेछों की सेनापर पड़े सो सेना
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