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पद्म
पुराण
॥४९॥
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हुई दूर लग पत्र पुष्प फल इन्धनादि के मिसकर साथचली आई, कई एक तापसिनी मधुर वचन कर इनको कही भईकितुम हमारे आश्रमविषे क्यों न रहो हमतुम्हारी सब सेवा करेंगी यहांसे तीन कोसपर ऐसीवनी है जहां महासघन वृक्ष हैं मनुष्यों का नाम नहीं अनेक सिंह व्याघ्र दुष्टजीवोंकर भरी जहांईंधन और फल फूल के अर्थ तापस भी न आवें डामकी तीक्षण णीयों कर जहांसंचार बन महाभयानक है और चित्रकूट पर्वत अति ऊंचा दुर्लंध्य तिस्तीपिडा है तुम ने क्या नहीं सुना है जो चलेजावोहो तब राम कहते भए हो तापसीनो हो हम अवश्य आगे जावेंगे तुम तुम्हारे स्थान जावो कठिनता से तिनको पीछे फेरी वे परस्पर इनके गुणरूपका वरणन करती अपने स्थानक आई ए महा गहन वन में प्रवेश करते भए कैसा है वह पर्वतके पाषाणोंके समूहकर महाकर्कस औरजे बडे २ जे वृक्ष तिनपर आरूढ हैं बेला के समूह जहां और सुधाकर अति क्रोधायमानजे शार्दूल तिनके नखकर बिदारे गए हैं वृक्ष जहां और सिंहोकर हते गए जे गजराज तिनके रुधिर कर रक्त भए जो मोती सोठारे २ विखर रहे हैं और माते जे गजराज तिन कर भग्न भएहैं तरुवर जहां और सिंघों की ध्वनि सुन कर भाग रहे हैं कुरंग जहाँ ! और सूते जे अजगर तिनके श्वासोंकी पवनकर पूर रही हैं गुफा जहां शूरों के समूहकर कर्दम रूप होरहे हैं सरोवर जहां और महा अरण्य भैंसे उनके सींगनकर भग्न भये हैं ववइयों के स्थान जहां और फणको ऊंचे किये फिरहेँ भयानकसर्प जहां और कांटोंकर बींधापू का अग्रभाग जिनका ऐसी जे सुरहगाय सो खेद खिन्न भई हैं और फैल रहे हैं कटेरी आदि अनेक प्रकार के कंटक जहां और विष पुष्पोंकी रजकी वासनाकर घूमें हैं अनेक प्राणी जहां और गैंडावों के पग कर विदारे गये हैं वृक्षों के पेड़ और भ्रम
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