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पन्न
पुराव ugcoml"
धारता भय, औरमहासुन्दर श्रापकके व्रतविषे तत्पर न्याय सहित राज्यकरताभया, भरतगुणोंकासमुद्र उसका प्रताप और अनुराग समस्त पृथिवी विषे विस्तरता भया, उसके देवांगना समान डेढ़ सौराणी तिन विषे प्रासक्त न भया, जल में कमलकी न्यांई अलिप्त रहा, जिसके चितमें निरन्तरयह चिन्ता वरतेकि कवयति के व्रत धरूं तप करू मिर्पथ हुवा पृथिवी में विचरूं धन्य हैं वे पुरुष जे धीरे सर्व परिग्रह का त्याग कर तप के बल कर समस्त कर्म को भस्मकर सारभुत जो निर्वाण का सुखउसे पाबे हैं, मैं पापी संसार में मग्न प्रत्यक्ष देखू हूं जो यह समस्त संसारका चरित्र क्षणभंगुर है जो प्रभात देखिये सो मध्यान्ह में नहीं में मढ होय रहा हूं जे स्क विषयाभिलाषी संसार में राचे हैं वे खोटी मृत्यु मरेंगे सर्प व्याघ्र गज जल अग्नि शस्त्र विद्युत्पात शूलारोपण असाध्य रोग इत्यादि कुरीतिसे शरीर तजेंगे यह प्राणी अनेक सहस्रों दुख को भोगनहारा संसार मेंभ्रमण करे है बड़ा पाश्चर्य है अस्प आयु में प्रमादीहोय रहा है जैसे कोइ मदोन्मत्त बास्समुद्र के तट मूता तरंगों के समूह से नहरे तेसे में मोह कर उन्मच भव भ्रमण से नहीं डरहूं निर्भय होय रहा हूं हाय हार हिन्सा प्रारम्भादि अनेक जे पाप तिन कर लिप्त में राज्य कर. कोन से घोर नरक में आऊंगा कैसा हे नाक वाण पदम चक के श्राकार तीमय पत्र जिन में श्रेसे शाल्मली वृत जर्झ हैं अथवा अनेक प्रकार निर्याच मति जिस में मागा देखो जिन सास्त्र सारिखा माहाजानरूप शास्त्र उस को पाय कर भी मेस मन पाप युक्त हो रहा है निस्पृह होय कर यति का धम्म नहीं घारे हे सो नजानिये कौन गति जाना है मेसी कर्मों की नासनहोरी जो धर्मरूप चिन्ता उसको निरन्तर माप्त हुआ जो राजा भरत सो जैन पुराणादि अन्थों के श्रवण विषे अासक्त सदैव
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