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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन्न पराज 1४६ पावे और जो जिनेंद्रकी प्रतिमा विधिपूर्वक कसवेसो मुरनरके सुख भोग परमपद पावे प्रत विधान संप दान इत्यादि शुभ ष्ठानोंसे प्राणी जे पुगक अपान सोसमा कार्य जिन विम्ब करावनके हुस्य नहीं जी मिनषिध कावे सो परंपधा सिप बाये और वो भव्य जिनमंदिर के शिखर बढ़ाने सो इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवादिक सुखभोगलोक शिसापधुचे औरओ जीलिमीवरोंकी घरम्मत करने सो कमब्प अजीर्णको हर निभव नीसेगपरको पाश्रीजी नवीव चैत्यालय कराय जिनबिम्बपराब प्रतिष्ठाकरे सो तीनलोकमें प्रतिष्ठापावे पोरजे सिद्धक्षेत्रादितीर्थोकी बाकाकरे सोमनुष्यजन्म सकसकरें और जे जिनप्रतिमाके वर्तनका चिन्तवनकरे उसे एक उपवासका फलहोय और दर्शनके उद्यमका अभिलापी होय सो बेलाका फल पावे और जो चैत्यालय जावयेका प्रारम्भकरे उसे वेलाकाफल होय गमन किए चौलाका फलहोय और कछुएक भागे गए पंच उपवासका फाहोय प्राधीदूरगए पचोपवासका फल होय और चैत्यालयके दर्शनसे मासोपवासका फलहोय और भावभक्तिकर महास्तुति किएअनंत फल प्राप्तिहोय जिनेंद्रकी भक्तिसमान और उत्तम नहीं और जो जिनसूत्र लिखवाय उसका व्याख्यान करें करावें पढ़ें पड़ावें सुनें सुनावे शस्त्रोंकी तथा पंडितोंकी भाक्तिकरें वे सर्वांगके पाठी होय केवल पद पावें जो चतुर्विध संघकी सेवा करे सो चतुरगतिके दुख हर पंचमगति पावे मुनि कहेहे कि हे भरत जिनेंद्रकी भक्तिकर कर्म क्षयहोय और कर्मचय भए अक्षयपद पावे ये बचन मुनिके सुन राना भरत ने प्रणाम कर श्रावकका व्रत अंगीकार किया भरत बहुश्रत अतिधर्मज्ञ महा विनयवान श्रद्धावान चतुर्विध संघको भाक्तकर और दुखित जीवोंको दयाभावकर दान देताभयासम्यकदर्शन रत्नको उरमें For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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