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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरात L 2- SAT T को कहकर निर्मोहबाके निश्ववको भात भया सकल विवियामिलापरूप दोषोंसे रहित सूर्य समानी वेग जिसका सो पृथ्वीमें तप संयमका उद्योत करता भया ॥ इति इकतीसवां पर्ष संपूर्णम् । अथानन्तर रामलक्ष्मण क्षण एक निद्राकर अर्धरात्रिके समय जब मनुष्यसोयरहेलोकोंका शब्द मिटगया मोर अंधकार फैलगया उस समय भगवानको नमस्कारकर वखतर पहिरधनुर्फ वाणलेयसीताको पीवमें से कर चले घर घर दीपकोंका उद्योत होरहाहै कामीजन अनेक चेष्टाकरे हें ये दोनों भाई महाप्रवीण नगरकेदार की खिडकीकी ओरसे निकसे दचिणदिशाका पंथ लिया गत्रिके अंतमें दौड़कर सामन्तलोक पाय मिले. राघबके संग चलमेकी है अभिलाषा जिनके दूरसे रामलक्ष्मणको देख महाविनयके भरे सवारी कोड़प्पादे आए चरणारविन्दको नमस्कारकर निकट श्रायक्वनालाप करले भए बहुत सेना आई और जानकीकीबहुत प्रशंसा करते भए कि इसके प्रमादसे हम रामलक्षमणको धाय मिले यह नहोसीतोये धीरे ईम चलते तोहम कैसे पहुंचते क्योंकि ये दोनों भाई पवनसमान शीतगामी हैं और यह सीता महासती हमारी माताहै इस समान प्रशंसायोग्य पृथ्वीमें और नहीं ये दोनोंभाई नरोत्तम सीताकी चाल प्रमाण मन्द मन्द दो कोस चले खेतों में नानाप्रकारके अन्न हरे होव रहे हैं और सरोवरों में कमल फूल रहे हैं और वृध महारमांक दीखे, अनेक ग्राम नगरादिमें मेरं लोक पूजहें भोजनादि सामग्री करी और बड़े बड़े राजावडी फौजसे आय मिले जैसे वर्षाकालमें गंगा यमुनाके प्रवाहमें अनेक नदियों के प्रवाह पाप मिलें कैइक सामन्तमार्गके खेदकरइनका निश्चय जान पाझपायपीछे गए और केएक लज्जाकर एक भयकर केइक भाक्तिकर लारप्यादे चले जाय हैं सो राम लक्ष्मण क्रीडा करते परियाना नामा अटवी । A For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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