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पुराण
॥४७५॥
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जिनके संपूर्णचन्द्रमा समानबदन फूले कमलसे नेत्रजाकथन में और चितवनमें न आवे ऐसा है रूपजिनका तिनका दर्शनकर भावसहित नमस्कारकर ये दोनों भाई परमहर्ष को प्राप्त भए, कैसे हैं दोनों बुद्धि पराक्रमरूप लज्जा के भरे जिनेंद्र की भक्ति में तत्पर रात्रि को चैत्यालय के समीप ही रहे. वहां इनको वसे जान कर माता कौशल्यादिक पुत्रों विषे है वात्सल्य जिनका श्राय कर आंसू डारती चारम्वार उरसों लगावती भई पुत्रोंक दर्शन में अतृप्त विकल्परूप हिंडालमें भूले है चित्त जिनका गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक सर्वशुद्धता में मन की शुद्धता महा प्रशंसा योग्य है स्त्रीपुत्रको भी उरसे लगाव और पतिको भी उरसे लगावे परन्तु परणाम का अभिप्राय जुदा २ है दशरथकी चारों ही राणी गुगारूप लावण्यताकर पूर्ण महामिष्टवादिनी पुत्रों से मिल पति गई जायकर कहती भई कैसा है पति सुमेरुसमान निश्चल है भाव जिसका राणी कहे हैं हे देव कुलंरूप जहाज थोकरूप समुद्रनें डूबे है सो यांभोराम लक्ष्मणको पीछे लावो तब राजा कहुते भए यह जगत विकाररूप मेरे श्राधीन नहीं मेरी इच्छातो यहही है कि सर्व जीवों को सुख होय किसी को भी दुःख न होय जन्म अरा मरणरूप पारधियोंकर कोई जीव पीडा न जाय परंतु ये जीव नानाप्रकार के कर्मों की . स्थिति को घरे हैं इस लिये कौन विवेकी वृथा शोककरे । बांधवादिक इष्टपदार्थोंके दर्शन में प्राणियों को तृति नहीं तथा धन और जीतत्र्य इनसे तृप्ति नहीं इंद्रियोंके सुख पूर्ण न होय सकें और आयु पूर्ण होय तब जीव देहको त और जन्म घरे जैसे पची वृत्तको तज चला जायहै तुम पुत्रोंकी माता हो पुत्रों को ले श्रावो पुत्रोंके राज्यका उदय देख विश्रामका भजा मनेतोराज्यका अधिकार तजा पाप क्रिया से agar Traयको प्राप्तभया अब मैं मुनित्रत धरूंगा । हे श्रेणिक इस भांति राजा राणियों
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