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पद्म पुराण
धनुषका करारभया जो धनुष राम चढ़ावें तो कन्याको परणे नातर हम यहांले आवेंगे और भामण्डल बिवाहेगा सो धनुषलेकर यहां से विद्याधर मिथिलापुरीगए सो राममहा पुण्याधिकारीने धनुष चढ़ायाही तब स्वयंबर ४४९मंडपमें जनककी पुत्री अति गुणवती महा विवेकवती पतिके हृदयकी हरणहारी ब्रत नियमकी धरन हारी नव यौवन मंडित दोषों से अखंडित सर्व कला पूर्ण शरद ॠतुकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान मुखकी कांतिको घरे लक्ष्मी सारखी शुभलक्षण लावण्यताकर युक्त सीता महासती श्रीराम के कंठ में बरमाला डार बल्लभा होती भई हे कुमार वे धनुष वर्तमान कालके नहीं गदा और हल आदि देवों पुनीत रत्नोंसे युक्त अनेक देव जिनकी सेवा करें कोई जिनको देख न सके सो वज्रावर्त सागरावर्त दोनों धनुषराम लक्ष्मण दोनों भाई चढावते भएवह त्रिलोक सुन्दरीरामने परखी अयोध्या ले गएसी अब वहवलात्कार देवोंसे भी न हारी जाय हमारी क्या बात और कदाचित कहोगे रामको परणाये पहले ही क्यों म. हरी सो जनक का मित्र रावण का जमाई मधुहै सो हम कैसे हरसकें इस लिये हे कुमार ! अव संतोष घरो निर्मलता भजो होनहार होयसो होय इन्द्रादिक भी और भांतिन करसकें तव धनुषचढ़ावनेका वृतान्त और राम से सीता का विहाह हो गया सुन भामण्डल अति लज्जावानहोय विषाद से पूर्ण भया मन में विचारे है जो मेरा यह विद्याधर का जन्म निरर्थक है जो मैं हीन पुरुषकी म्याईं उसे न परण सका ईषा और क्रोध से मंडितहोय सभा के लोकों को कहता भया कहां तुम्हारा विद्याधरपना तुम भूमिंगोचारियों से भी डरो हो "मैं आप जायकर भूमि गोवरियों को जीत उस को ले आऊंगा और जे धनुष दे आए तिनका निग्रह करूंगा सो कहकर शस्त्र सज विमान विषे चढ़ आकाश के मार्ग गया अनेक ग्राम नदी
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